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Showing posts from March, 2014

...इनसे बचैं तो सेवैं काशी!

रमेश पाण्डेय चैत का महीना है, देश में चुनाव की बयार चल रही है। इस बयार के बीच जिधर देखो उधर बस एक ही चर्चा है, बस काशी की। जो काशी का मिजाज नहीं जानते, जो जानते है वे भी, दोनों काशी की चर्चा में सराबोर हैं। कई नेताओं की दुकान तो बस काशी पर बयानबाजी से ही चल रही है। देश में कई नेताओं के लिए बस काशी ही एक मुद्दा बन गया है। लगता है वे लोग यह नहीं जानते की काशी मोक्ष की नगरी है। यहां कोई भी आ सकता है, जा सकता है। एक कहावत है कि काशी आने और जाने वालों को सावधानी रखनी चाहिए क्योंकि यह कहा जाता है कि 'रांड़, सांड़, सन्यासी। इनसे बचैं तो सेवैं काशी।' कहने को तो यह कहावत है, पर इसके पीछे हकीकत छिपी है। हकीकत यह कि जिसने काशी का मिजाज नहीं जाना, वह बहुत ज्ञानी हो तो भी यहां ज्ञान से अनजान हो जाता है। हम आपका ध्यान काशी की उस संस्कृति पर भी डालना चाहते हैं, जिससे काशी विश्व प्रसिद्ध है। धार्मिक ग्रन्थों में एक प्रसंग आता है कि महर्षि वेदव्यास को अपने ज्ञान पर घमंड था, सो उन्होंने भगवान शिव के पुत्र से भी क्लर्की करवायी यानि अपनी सेवा ली। काशी को भगवान शिव की नगरी भी कहा जाता है। ऐसी मान्

भागते चिदंबरम

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यह बात अतिशयोक्ति लग सकती है। किन्तु है कड़वा सच। देश का हर नागरिक इस समय अगर किसी समस्या से ग्रस्त है तो वह है मंहगाई और देश का हर शख्स अगर किसी समस्य से जूझ रहा है तो वह है भ्रष्टाचार। पिछले दस वर्षों में अगर इसके लिए सबसे अधिक कोई दोषी है तो केन्द्र की सत्ता पर बैठी यूपीए-1 और यूपीए-2 की सरकार। इस सरकार में भ्रष्टाचार और मंहगाई के इस बड़े आकार के लिए अगर कोई सबसे अधिक जिम्मेदार है तो वह हैं पी. चिदंबरम। देश के लिए यह दुर्भाग्य है कि पिछले दस वर्ष में मंहगाई और भ्रष्टाचार के सबसे बड़े नायक रहे पी. चिदंबरम इस बार चुनाव मैदान में नही हैं। चिदंबरम का चुनाव में न उतरना इसलिए और भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिवगंगा के मतदाताओं के पास अब इस बात का अवसर नहीं आएगा कि वे अपना निर्णय सुना सकें। यह निर्णय चिदंबरम के पक्ष में भी हो सकता था, पर देश अब यह कभी नहीं जान पाएगा कि शिवगंगा के मतदाता उन्हें हराना चाहते थे या फिर हराना। 2009 में लोकसभा चुनाव हो रहा था तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सत्ता में आने के बाद देश के नागरिकों से वादा किया था कि वह सौ दिन के भीतर मंहगाई कम कर देंगे। पर ऐसा नहीं हुआ।

ऐसे नेता कार्यकर्ता को क्या देंगे नसीहत

16वीं लोकसभा के गठन के लिए बजी चुनावी रणभेरी के बाद देश के कई प्रमुख नेताओं ने ऐसा आचरण किया, जिससे वह कार्यकर्ता ही नहीं जनता की नजरों से भी गिर गए हैं। ऐसे नेताओं में भाजपा के प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, जसवंत सिंह, लालजी टंडन, राम विलास वेदांती, कांग्रेस नेता सुरेश कलमाडी, जगदंबिका पाल, आरजेडी के नेता राम कृपाल यादव जैसे लोग प्रमुख हैं। आडवाणी ने पहले नरेन्द्र मोदी को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति में शामिल होने का विरोध किया, फिर उन्हें प्रचार समिति का प्रमुख बनाए जाने का विरोध किया। इसके बाद पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए जाने पर नाक-भौं सिकोड़ी और अब टिकट को लेकर बूढ़ पतुरिया जैसे नाटक किया। ऐसे शीर्षस्थ नेता के इस आचरण से आम जनता क्या सीख लेगी। कार्यकर्ताओं को ऐसे नेता क्या नसीहत देंगे। जो नेता खुद अपनी ख्वाहिश को पूरी करने के लिए देश हित और पार्टी हित को दोयम दर्जे पर रखता हो, वह कैसे लोकप्रिय बन सकेगा। दूसरे हैं मुरली मनोहर जोशी, कभी देश में यह नारा लगा  करता था कि देश के तीन धरोहर, अटल, आडवाणी मुरली मनोहर। जोशी जी भाजपा के सांस्क

बंदूक का जवाब बंदूक से या फिर संवाद का रास्ता जरूरी

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रमेश पाण्डेय बस्तर के जिस इलाके में सुरक्षा बलों का खून बहा है। वह इलाका सभ्यता, संस्कृति और लोकतंत्र की साख का अनूठा संगम रहा है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता बरबस मन मोह लेती है। इतिहास पर नजर डाले तो वीर हनुमान भी इसी धरती ने दिया। किष्किन्धा राज्य के इसी क्षेत्र में होने के प्रमाण मिलते हैं। बस्तर को ही दंडकारण्य कहा जाता है। किष्किन्धा राज्य दंडकारण्य की ही सीमा में स्थित था। भगवान राम के वनवास काल का दस वर्ष से अधिक का समय यहीं के जंगलों में गुजरा। धार्मिक ग्रंथों में जिस साल वन, पिप्लिका वन, मधुवन, केसरी वन, मतंग वन, आम्रवन आदि का वर्णन मिलता है। वह बस्तर के भी प्रमुख पादप, वृक्ष और वन समूह हैं। भगवान राम ने गोदावरी नदी के  पास जिस पंचवटी में वनवास काल बिताया और जहां से माता सीता का रावण द्वारा हरण किया गया, वह स्थान भी इसी क्षेत्र में है। राम विन्ध्य को पार करके दंडकारण्य आए थे। उन दिनों यह क्षेत्र सभ्यता का बड़ा केन्द्र हुआ करता था। अगस्त्य, सुतीक्ष्ण, शबरी, शम्बूक, माण्डकर्णि, शरभंग आदि ऋषियों-मुनियों की यह कर्मस्थली रही है। जगदलपुर से सुकमा जाने वाली सड़क पर पेड़-पहाड़, झरन

पुलिस के खुलासे पर उठे सवाल

प्रतापगढ़ पिछले तीन माह से अधिवक्ताओं की हत्या की प्रयोगस्थली बन गया है। सबसे मजेदार बात यह है कि ताबड़तोड़ हो रही हत्या की घटनाओं पर पुलिस जो कहानी गढ़ रही है, उससे पुलिस की कार्यशैली पर ही सवाल खड़ा हो रहा है। ऐसे में यह और महत्वपूर्ण हो गया है कि आखिर पुलिस ऐसा किसी के दबाव में कर रही है या फिर खुद एक तमाशा कर रही है। पहला सवाल-जूनियर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष राजदत्त मिश्र की हत्या के बाद प्रदेश के तेज तर्रार पुलिस अधिकारी अरुण कुमार झा ने रायबरेली में प्रेस कांफ्रेस करके घटना का पर्दाफाश किया था। उस समय यह बात सामने आ गयी थी कि राजदत्त मिश्र की हत्या के पीछे कोई एक अधिवक्ता है, जिसने हत्यारे को सुपारी दी थी। सवाल है कि जब पुलिस को इस बात का इल्म हो गया था कि राजदत्त की हत्या के पीछे सुपारी देने वाला अधिवक्ता है तो पुलिस ने उसका पता क्यों नहीं लगाया। दूसरा सवाल-पुलिस का कहना है कि रजिस्ट्री आफिस से अधिवक्ता प्रभाकर सिंह मीनू वसूली किया करते थे। मान रहे हैं कि यह बात सच है, पर सवाल है कि शहर कोतवाली परिसर में ही रजिस्ट्री का कार्यालय है, अगर वहां से इस तरह से वसूली हो रही है और पुलिस

बाखबर अपराधी, बेखबर पुलिस तंत्र

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में एक साल के भीतर एक दर्जन से अधिक हत्या की बड़ी वारदात हुई। ऐसी वारदाते चोरी छिपे नहीं बल्कि सरेशाम हुई। अपराधी वारदात करके भाग निकले। अपराधी को पकड़े जाने की बात दूर, पुलिस इस बात तक का पता नहीं लगा सकी कि घटना के पीछे वास्तविक लोग कौन रहे और किन कारणों से ऐसी घटना घटी। पुलिस तंत्र इसी बात के लिए मोटी तनख्वाह उठा रहा है। कुंडा में डीएसपी जियाउल हक की हत्या हुई तो लोगों ने इसे परिस्थितिजन्य घटना करार दिया। हो भी सकता है कि उस समय की परिस्थियां ऐसी रहीं हो कि अचानक घटना घट गयी, पर क्या जूनियर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष राजदत्त मिश्र की हत्या परिस्थितिजन्य घटना थी, अधिवक्ता कल्लू सिंह और प्रभाकर सिंह मीनू की हत्या की घटना परिस्थितिजन्य घटना थी। क्या पूर्व मंत्री मोती सिंह के भतीजे को गोली मारकर हुई लूट की घटना परिस्थितिजन्य थी। ऐसा नहीं। यह घटनाएं पूरी तरह से सुनियोजित और प्री प्लान्ड हुई। अपराधियों ने बराबर कुछ दिनों तक रेकी की, इसके बाद घटना को अंजाम दिया। घटनाओं की पृष्ठभूमि देखने से ही ऐसा साफ हो जाता है। इसका मतलब अपराधियों  की आवाजाही और उनकी गतिविधिय

खींचतान में फंसा यूक्रेन

साढ़े चार करोड़ की आबादी का देश यूक्रेन पश्चिम और रूस के बीच चलनेवाली शक्ति-संतुलन की रस्साकशी में फंस गया है. यूक्रेन के मौजूदा संकट की शुरुआत बीते साल नवंबर महीने में हुई थी, जब रूस से अपने दोस्ताना संबंध बनाये रखने की टेक पर चलते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति यानुकोविच ने युरोपीय संघ के साथ दूरगामी प्रभाव वाले समझौते से इनकार कर दिया था. राष्ट्रपति के इस फैसले के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आये. यूक्रेन के नागरिकों में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहते हैं. ऐसे नागरिक शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन करते हुए राजधानी कीव में जमा होते रहे और अंतत: जब विरोध-प्रदर्शन ने पुलिसिया कार्रवाई के बीच हिंसक रूप धारण किया, तो यानुकोविच को इस्तीफा देना पड़ा. अब हाल यह है कि यूक्रेन के रूसीभाषी लोगों के मानवाधिकार की रक्षा के नाम पर रूस ने यूक्रेनी शहर क्रीमिया में अपने सैनिक उतार दिये हैं. रूस ने वहां बड़ी संख्या में नौसैनिक युद्धपोत व युद्धक विमान भी सैन्य-अभ्यास के बहाने तैनात कर दिया है.उधर पूरे मामले पर टेढ़ी नजर रखते हुए अमेरिका ने एक तो रूस के साथ अपने आर्थ