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Showing posts from January, 2014

गरीबी तो बस स्टेट ऑफ माइंड है

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छी-छी- वो भी कैसे सड़े हुए दिन थे, जब चुनाव गरीबी, बेरोजगारी जैसे ‘डाउनमार्केट’ मुद्दों पर लड़े जाते थे. तब के नेताओं को यह दिव्य- ज्ञान कहां था कि ‘गरीबी तो बस स्टेट ऑफ माइंड  है’? वे तो गरीबी को अभिशाप कहते रहे. कितने नासमझ थे बेचारे? अब बताइए, अगर नेहरू, शास्त्री और इंदिरा के जमाने में गरीबी दूर हो गयी होती, तो एक बच्च चाय क्यों बेचता और उसे बड़े होकर देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का मौका कैसे मिलता? हमें तो एहसानमंद होना चाहिए उन नेताओं का जो गरीबी दूर नहीं कर पाये, नहीं तो एक महान नेता पाने के अवसर से देश वंचित रह जाता. यह तो अच्छा हुआ कि उस जमाने में आज की तरह टीवी न्यूज चैनल नहीं थे, नहीं तो उनकी टीआरपी हमेशा जमीन ही सूंघती रहती. कोई गरीबी, बेरोजगारी जैसे नीरस मसलों पर भला कितनी देर प्राइम टाइम में टीवी पर बहस करा सकता है? बहस करनेवाला भी डिप्रेशन का शिकार हो जाता और बहस सुननेवाला भी. टीवी के लिए विजुअल चुनने में परेशानी आती सो अलग. झुग्गी-झोपड़ी, भूख से बिलखते नंगे-गंदे बच्चे, घिसी चप्पलों और बढ़ी दाढ़ीवाले नौजवान.. यानी सिर्फ ‘फील बैड’. 2004 के आम चु

विरोधाभासी विचार

‘वर्क ऑन लिबर्टी’ जैसी प्रसिद्ध किताब के लेखक व दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा था, ‘चूंकि व्यापार एक सामाजिक कर्म है, न कि निजी, इसलिए इसे सामाजिक नियंत्रणों तथा नियमों के अधीन रखा जाना चाहिए. लेकिन, भूमंडलीकरण की पैरोकार शक्तियां व्यापार पर समाज या राज्य के नियंत्रण को किसी देश के विकास की राह में सबसे बड़ा अवरोध मानती हैं. इनके द्वारा सीमाओं के आर-पार अबाध गति से व्यापार करने की आजादी को समृद्धि की गारंटी के तौर पर प्रचारित किया जाता है. इस आजादी को नापने के लिए अमेरिका का हेरिटेज फाउंडेशन और वॉल स्ट्रीट जनरल मिल कर पिछले 20 वर्षो से एक इकोनॉमिक फ्रीडम इंडेक्स यानी आर्थिक स्वतंत्रता सूचकांक जारी करते हैं. इस सूचकांक में आर्थिक क्रियाकलाप के मामले में कानून का शासन, विनियामक कुशलता, सरकारी हस्तक्षेप और खुले बाजार जैसी कसौटियों पर देशों को रैंकिंग दी जाती है. इस सूची में उदारीकरण की शुरुआत के 22 वर्षो बाद भी भारत की रैंकिंग 120वीं है, जबकि चीन

.. तो वाकई में बदल जाएगी तस्वीर

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नौकरशाह से राजनीति में आए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरिविन्द केजरीवाल ने सदगी का तराना क्या छेड़ा, सारा देश उनका दीवाना हो चला। सच में अगर यह मिशन कारगर रहा तो देश की तस्वीर वाकई में बदल जाएगी। नेताओं की सुरक्षा और तामझाम के नाम पर होने वाला अरबों रुपए का सरकारी व्यय रुक जाएगा। इस धनराशि का उपयोग देश के विकास में किया जा सकेगा। बिजली, चिकित्सा, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों पर व्यापक काम किए जा सकेंगे। हम आपका ध्यानाकर्षण पिछले एक पखवारे की गतिविधियों की ओर करना चाह रहे हैं। 28 दिसंबर 2013 को अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसी दौरान उन्होंने दिल्ली से लालबत्ती कल्चर को खत्म करने के लिए किसी भी मंत्री (खुद भी शामिल) को लालबत्ती का इस्तेमाल न करने को कहा। इसके बाद देश के कोने-कोने से लालबत्ती का इस्तेमाल न करने वालों की तादात बढ़ने लगी। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश निशंक पोखरियाल ने लालबत्ती लगी गाड़ी पर न चलने की घोषणा कर दी। छत्तीसगढ़ के नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंह बाबा ने लालबत्ती लगी गाड़ी पर चलने से इनकार कर दिया। अरविन्द केजरीवाल ने सुरक्षा लेने से

कृषि क्षेत्र में रोजगार निरंतर घटेगा

सरकारी अध्ययन के अनुसार 2012-2022 के बीच कृषि क्षेत्र में रोजगार निरंतर घटेगा. इससे निपटने के लिए 2025 तक सरकार को 20 करोड़ अतिरिक्त नौकरियों का इंतजाम करना होगा और यह लक्ष्य निर्माण क्षेत्र के भरोसे ही भेदा जा सकता है.  अब तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी मान लिया है कि उनके शासनकाल में महंगाई और भ्रष्टाचार बढ़ा है , नौकरियों का टोटा रहा है . उनकी यह स्वीकारोक्ति इसलिए महत्वपूर्ण है , क्योंकि वह न केवल प्रधानमंत्री हैं , बल्कि एक विख्यात अर्थशास्त्री भी हैं . यानी एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने अपनी विफलता स्वीकार ली है. जाहिर है, 2014 में जो भी पार्टी या गठबंधन देश का शासन संभालेगा, उसके सामने बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की होगी. बीते साल खुदरा मूल्य सूचकांक लगातार दो अंकों में रहा, जो आम आदमी पर महंगाई की करारी मार का सूचक है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार खाने-पीने की चीजों की कीमत शहरों के मुकाबले गांवों में कहीं ज्यादा है. देश की अधिकतर आबादी गांवों में रहती है, ऐसे में उसकी बदहाली का अनुमान लग

अविश्वास से बात बनती नहीं, बिगड़ जाती है

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आज विश्वास की अधिक आवश्यकता है। यह ऐसा जादू है, जिससे बिगड़ी हुई बातें भी बन जाती हैं.. आज भाई-भाई के बीच अविश्वास है। मित्र-मित्र में अविश्वास है। विभिन्न पक्षों, दलों और गुटों में अविश्वास है। किंतु हम कहना चाहते हैं कि अविश्वास अब इस जमाने की चीज नहीं है। आज मानव के हाथों में इतने भयानक शस्त्रास्त्र आ गए हैं कि यदि एक-दूसरे पर अविश्वास करते रहेंगे, तो मानव-समुदाय मिट जाएगा। अविश्वास से बात नहीं बनती, बिगड़ जाती है। इसलिए जैसे हम मित्रों पर विश्वास करते हैं, वैसे ही प्रतिपक्षी पर भी विश्वास करना सीखें। विश्वास रखने से हम कुछ खोएंगे नहीं। खोएगा वही, जो विश्वासघात करेगा। विश्वास इस संसार का सबसे अद्भुत जादू है। विश्वास पर ही यह सारा संसार खड़ा है। यदि विश्वास की शक्ति न रहे, तो मानव जाति एक-दूसरे से लड़-लड़कर समाप्त हो जाएगी। एक चोर को भी अपने साथी चोर पर विश्वास करना पड़ता है। यदि हम इस विश्वास पर विश्वास करके उसकी शक्ति को पहचान सकें और तदनुरूप बरत सकें, तो दुनिया के झगड़े मिटने में देर न लगेगी। आज की दुनिया के झगड़ों का सबसे बड़ा कारण अविश्वास है। हमें यही अविश्वास मि