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Showing posts from May, 2014

सैंडर्स हत्याकांड में बेगुनाह शहीदे आजम भगत सिंह

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आत्म सम्मान, देश भक्तों के प्रति स्वाभिमान, राष्ट की भक्ति ऐसे पहलू हैं जो सदियों बाद भी स्मृतियों में आने पर आनंद और उत्साह पैदा करते हैं। नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा प्रदान करते हैं। कुछ ऐसा ही जज्बा है इम्तियाज राशिद कुरैशी का। राशिद कुरैशी भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं। कुरैशी की जिद है कि जिस ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन पी सैंडर्स की हत्या में सरदार भगत सिंह को फांसी दी गयी, उस मामले में वह पूरी तरह से निर्दोष हैं। वह इस मामले में उनकी बेगुनाही को साबित करना चाहते हैं। इस दिशा में उन्हें महत्वपूर्ण सफलता भी हासिल हुई है। लाहौर पुलिस ने साफ कर दिया है कि 1928 में हुई एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी की हत्या के मामले में दर्ज प्राथमिकी में शहीद-ए-आजम भगत सिंह के नाम का उल्लेख नहीं मिला है। भगत सिंह को फांसी दिए जाने के 83 साल बाद मामले में महान स्वतंत्रता सेनानी की बेगुनाही को साबित करने के लिए यह बड़ा प्रोत्साहन है। भगत सिंह मेमोरियल फाउन्डेशन के अध्यक्ष याचिकाकर्ता इम्तियाज राशिद कुरैशी ने याचिका दायर की थी जिसमें भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के खिलाफ तत्कालीन एसएसपी जॉन पी सैंडर्स

कौन खर्च कर रहा है ये रुपए

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कितना महंगा हो गया है, यह आजादी के बाद के चुनावों से तुलना करके देखें या फिर सिर्फ इस बार के चुनाव को परखें तो भी तस्वीर पारदर्शी दिखाई देगी। आजादी के बाद पहले चुनाव में कुल खर्च 11 करोड़ 25 लाख रुपए का हुआ था। 2014 में अभी जो चुनाव हो रहे हैं, उसका आंकड़ा 34 हजार करोड़ पार कर रहा है। 1952 में चुनाव आयोग के खर्च में ही चुनाव संपन्न हो गया था। लेकिन अब आयोग से दस गुना ज्यादा खर्च उम्मीदवार कर देते हैं। तो रुपयों में कैसे चुनावी लोकतंत्र का यह मिजाज बदला है, यह समझना भी दिलचस्प है। 1952 में चुनाव आयोग को प्रति वोटर 60 पैसे खर्च करने पड़ते थे। 2014 में यह 437 रुपए हो चुका है। 1952 में चुनाव आयोग का खुल खर्च साढ़े दस करोड़ हुआ था। उस वक्त 17 करोड़ वोटर थे। लेकिन आज देश में 81 करोड़ वोटर हैं और चुनाव आयोग का खर्च साढ़े तीन हजार करोड़ पार कर चुका है। सवाल चुनाव आयोग के 3500 करोड़ के खर्च का नहीं है। असल सवाल है, जो चुनाव लड़ते है वह जीतने के लिए दोनों हाथों से जिस तरह चुनाव खर्च के नाम पर पैसा लुटाते हैं या उन्हें लुटाना पड़ता है, उसका असर यह हो चला है कि 1952 के चुनाव में सभ

कृषि निर्यात की नीतिगत तैयार में फिसड्डी साबित हो रहा भारत

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मई की तपती गरमी से लेकर अगस्त की सिंझाती सांझ तक पूरे देश में क्या राजा क्या रंक सबका मुंह मीठा करवाने के कारण ही शायद यहां आम को 'फलों का राजा' कहा जाता है। लेकिन इस बार मई की शुरुआत में ही आमों के सरताज 'अल्फांसो' का स्वाद 'फीका' पड़ गया है। खबर है कि 28 देशों के यूरोपीय संघ (इयू) ने भारत से 'अल्फांसो' के आयात पर पहली मई से 20 महीनों के लिए पाबंदी लगा दी है। इस तरह आमों का यह सरताज यूरोपीय बाजार को जीतने से पहले ही मैदान से बाहर हो गया है। इयू की स्वास्थ्य समिति ने भारत से चार सब्जियों बैंगन, करेला, अरबी और चिचिण्डा के आयात पर भी रोक लगा दी है। तर्क है कि 2013 में इन उत्पादों की 207 खेप कीटनाशकों के प्रयोग के मामले में दूषित पायी गयी और अगर आयात जारी रखा गया तो इयू के देश, खास कर ब्रिटेन के फल व सलाद उद्योग को खतरा पैदा हो सकता है। कोई यह कह कर संतोष कर सकता है कि जिन कृषि उत्पादों पर इयू ने पाबंदी लगायी है, वह यूरोप को निर्यात होने वाले भारतीय कृषि उत्पादों का महज पांच फीसदी है, पर यह नुकसान कम नहीं है। क्योंकि अकेले ब्रिटेन हर साल करीब 1.5 करोड़ अ