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Showing posts from September, 2014

मुक्तिबोध की कविताओं में छिपा मध्यवर्ग का दर्द

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हिन्दी दिवस (14 सितंबर 2014) के मौके पर अज्ञेय और निराला के समकालीन साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध जी की 50वीं पुण्यतिथि पर आयोजित एक स्मृति कार्यक्रम में शामिल होने का सौभाग्य मिला। यह कार्यक्रम मुक्तिबोध जी के पुत्र श्री रमेश मुक्तिबोध और श्री दिवाकर मुक्तिबोध व परिवार के सभी सदस्यों द्वारा सामूहिक रुप से आयोजित किया गया था। कार्यक्रम में शामिल होने के बाद यह पता चला कि परिवार के लोग प्रत्येक वर्ष यह कार्यक्रम आयोजित करते हैं। इसका क्रम सतत 11 सितंबर 1964 से चला आ रहा है। इस कार्यक्रम में प्रमुख वक्ता के रुप में साहित्यकार रविभूषण और पंकज चतुर्वेदी का विशिष्ठ उद्बोधन सुना। इन दोनों प्रखर वक्ताओं के उद्बोधन को सुनने के बाद वाकई यह महसूस किया कि साहित्यकार देश की भलाई के प्रति जितना सोचता है, शायद उसका एहसास हमारा समाज नहीं करता और न ही इस देश के राजनयिक करते हैं। इसी का नतीजा आज देखने को मिल रहा है कि प्रकृति ने देश के जिस हिस्से को जन्नत बनाया था, कतिपय विकासवादी सोच के लोगों ने उसे जहन्नुम बना दिया। मुक्तिबोध की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ‘अंधेरे में’ का विमर्श सुनने के बाद यह महसूस

स्वतंत्र भारत की उषाकाल के कवि ‘मुक्तिबोध’

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11 सितंबर का दिन आता है तो साहित्य जगत में अनायास ही गजानन मानव मुक्तिबोध नाम जीवंत हो उठता है। सच कहा जाए तो मुक्तिबोध स्वतंत्र भारत की उषाकाल के कवि थे, लेकिन उनकी कविता में सुकून नहीं है, कहीं पहुँच जाने की तसल्ली नहीं है। मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे। लेकिन अस्तित्ववादी अतीत के कारण उनमें स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व के बीच के रिश्ते का बोध इतना तीव्र था कि मार्क्सवाद उपलब्ध हो जाने के बाद वे निश्चिंत नहीं हो पाए। मुक्तिबोध विचारधारा के हामी होते हुए भी उसके इत्मीनान का लाभ नहीं लेते। उनकी बेचैनी और छटपटाहट का कारण यही है। मुक्तिबोध के काव्य जीवन की शुरूआत रोमांटिक जमीन पर हुई, लेकिन बीसवीं सदी के पांचवें और छठे दशक तक आते-आते उनका अपना कंठ फूटने लगा और छायावादी शब्दावली और मुद्राओं से वे मुक्त होने लगे। मुक्तिबोध का काव्य संसार घटनापूर्ण है, लेकिन वे बाहरी दुनिया में, ऐतिहासिक अवकाश में नहीं घटतीं। वे मनुष्य की आत्मा के भीतर यात्रा करते हैं और उसके जख़्मी होने या ध्वंस की खबर लाते हैं। मुक्तिबोध की कविताओं में जहां आत्मध्वंस की खबर है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संभावनाओं की मर्माहत से भरी

प्रशासनिक सुधार की दिशा में एक कदम

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सरकारी अफसरों को अब आधिकारिक विदेश-यात्रा पर जाने से पहले प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ), विदेश मंत्रलय और गृह-मंत्रलय से अनुमति लेनी होगी। अनुमति के लिए प्रस्ताव केंद्रीय सचिवालय की स्क्रीनिंग कमिटी के जरिये भेजा जायेगा। उच्चपदस्थ अधिकारियों को आधिकारिक विदेश-यात्रा पर जाने से पहले एक फार्म भी भरना होगा। इसमें उन्हें बताना होगा कि जिस संस्था के न्योते पर वे विदेश जा रहे हैं, वह संस्था उन्हें यात्रा-व्यय के मद में वित्तीय सहायता दे रही है या नहीं और विदेश-यात्रा के बारे में उन्होंने अपने विभाग या मंत्रलय को सूचित किया है या नहीं। मंत्रलयों को अपने अफसरों की विदेश यात्रा से संबंधित जानकारी को वेबसाइट पर सार्वजनिक भी करना होगा। सरकारी खर्चे पर अफसरों की आये दिन विदेशों की सैर पर नकेल कसने की यह कोशिश यों ही नहीं हुई है। वित्त मंत्रालय और केंद्रीय सचिवालय ने साफ कहा है कि सरकारी बाबू विदेश-यात्रा के दिशा-निदेर्शों को धता बता रहे हैं। उच्चाधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिहाज से उठाया गया यह छोटा कदम संकेतों के लिहाज से महत्वपूर्ण है। इस कदम से अफसरों के बीच संदेश जायेगा कि सरका