कृषि क्षेत्र में रोजगार निरंतर घटेगा

सरकारी अध्ययन के अनुसार 2012-2022 के बीच कृषि क्षेत्र में रोजगार निरंतर घटेगा. इससे निपटने के लिए 2025 तक सरकार को 20 करोड़ अतिरिक्त नौकरियों का इंतजाम करना होगा और यह लक्ष्य निर्माण क्षेत्र के भरोसे ही भेदा जा सकता है. अब तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी मान लिया है कि उनके शासनकाल में महंगाई और भ्रष्टाचार बढ़ा है, नौकरियों का टोटा रहा है. उनकी यह स्वीकारोक्ति इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह केवल प्रधानमंत्री हैं, बल्कि एक विख्यात अर्थशास्त्री भी हैं.
यानी एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने अपनी विफलता स्वीकार ली है. जाहिर है, 2014 में जो भी पार्टी या गठबंधन देश का शासन संभालेगा, उसके सामने बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की होगी. बीते साल खुदरा मूल्य सूचकांक लगातार दो अंकों में रहा, जो आम आदमी पर महंगाई की करारी मार का सूचक है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार खाने-पीने की चीजों की कीमत शहरों के मुकाबले गांवों में कहीं ज्यादा है. देश की अधिकतर आबादी गांवों में रहती है, ऐसे में उसकी बदहाली का अनुमान लगाया जा सकता है. ऊपर से तुर्रा यह है कि सरकार गांव में रहनेवाले करोड़ों किसानों-मजदूरों के जीवन यापन के लिए महज 27 रुपये प्रतिदिन काफी बताती है. खाद्य सुरक्षा कानून का ढिंढोरा पीटनेवाला शासक वर्ग भूल जाता है कि जिंदा रहने के लिए गेहूं-चावल ही काफी नहीं है, दाल-सब्जी भी जरूरी है, जिसे खरीदना आज सबके बस की बात नहीं रही. आनेवाली सरकार को सबसे पहले महंगाई पर लगाम लगाने की अग्नि परीक्षा से गुजरना होगा. एक के बाद एक घोटाले सामने आने से यूपीए सरकार की नीतिगत निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित हुई. इससे विदेशी निवेश की नदी भी लगभग सूख गयी है. बिजली और सड़क जैसी आधारभूत संरचना से जुड़े कार्य लंगड़ी चाल से चल रहे हैं. राजकोषीय घाटे में कमी के लिए वित्तमंत्री चिदंबरम ने सरकारी खचरें में कटौती का फरमान जारी किया है. इस आदेश से गरीब आदमी की मुसीबत और बढ़नेवाली है, क्योंकि कटौती की कैंची जन-कल्याणकारी योजनाओं पर भी चलेगी. ऐसे में 2014 को आर्थिक दृष्टि से सुखद मानना भूल होगी. आम चुनाव सिर पर हैं, उसके बाद महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, ओड़िशा, हरियाणा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम में विधानसभा चुनावों का नगाड़ा गूंजेगा. जाहिर है, यह साल सियासी उठा-पटक में ही बीतनेवाला है. हां, उम्मीद की एक किरण नजर आती है. बीते दो बरस से मंदी की नदी में गोता खा रही अमेरिकी और यूरोपीय अर्थव्यवस्था में सुधार के प्रबल संकेत मिल रहे हैं. इसका सकारात्मक असर हमारी अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा. स्टैंडर्ड चार्टर्ड का अनुमान है कि विश्व अर्थव्यवस्था की विकास दर चालू वर्ष में 3.5 फीसदी रहेगी, जो पिछले साल से करीब एक फीसदी अधिक है. अमेरिका में विकास दर का आंकड़ा 2.4 फीसदी (वर्ष 2013 में 1.7 था) और यूरोप में 1.3 प्रतिशत रहने की संभावना है. पड़ोसी चीन में विकास दर 7.4 प्रतिशत रहने की आशा है. भारत के संबंध में अर्थशास्त्रियों की राय अलग-अलग है. एशियाई विकास बैंक के अनुसार 2014 में भारत की विकास दर 5.7 प्रतिशत तथा विश्व बैंक के मुताबिक 6.2 प्रतिशत रहने की संभावना है. यह स्थिति चालू वित्त वर्ष से बेहतर कही जायेगी. निर्यात और निवेश वृद्धि के संकेत भी है, पर भावी सरकार के लिए बड़ी चुनौती औद्योगिक उत्पादन को गति देना होगी, क्योंकि इसके बिना रोजगार के अवसर पैदा करना असंभव है. एक सरकारी अध्ययन के अनुसार 2012-2022 के बीच कृषि क्षेत्र में रोजगार निरंतर घटेगा. इससे निपटने के लिए 2025 तक सरकार को 20 करोड़ अतिरिक्त नौकरियों का इंतजाम करना होगा और यह भागीरथी लक्ष्य निर्माण क्षेत्र के भरोसे ही भेदा जा सकता है. आज जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की हिस्सेदारी महज 16 फीसदी है. लगभग दो दशक से हमारी अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र का योगदान लगभग स्थिर है. यह चिंताजनक संकेत है. इस कमजोरी के कारण ही विश्व व्यापार में हमारी हिस्सेदारी महज 1.8 प्रतिशत है. पड़ोसी देश चीन में जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान 34 प्रतिशत है. दो दशक पहले बतौर वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने ऊंची विकास दर का दावा कर देश को बाजार की ताकतों के हवाले किया था. भरोसा दिया गया था कि आर्थिक विकास का चक्का जब तेजी से घूमेगा तो उसका लाभ समाज के हर वर्ग को मिलेगा. महंगाई, बेरोजगारी और गरीब-अमीर के बीच चौड़ी होती खाई से खुली अर्थव्यवस्था का बुलबुला फूट चुका है. मंदी की चपेट में आने के बाद आज अमेरिका और यूरोपीय देशों में आर्थिक विकास से उत्पन्न लाभ और आमदनी के समान बंटवारे की मांग जोर पकड़ रही है. इस बात को भारत में भी शिद्दत से महसूस किया जाने लगा है. भविष्य में हमारे शासक वर्ग को भी इस पर ध्यान देना होगा. सिर्फ बहानेबाजी से अब जनता को भरमाया नहीं जा सकता.

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