विरोधाभासी विचार
‘वर्क
ऑन लिबर्टी’ जैसी प्रसिद्ध किताब के लेखक व दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल ने
कहा था, ‘चूंकि व्यापार एक सामाजिक कर्म है, न कि निजी, इसलिए इसे सामाजिक
नियंत्रणों तथा नियमों के अधीन रखा जाना चाहिए. लेकिन, भूमंडलीकरण की
पैरोकार शक्तियां व्यापार पर समाज या राज्य के नियंत्रण को किसी देश के
विकास की राह में सबसे बड़ा अवरोध मानती हैं.
इनके द्वारा सीमाओं के आर-पार अबाध गति से व्यापार
करने की आजादी को समृद्धि की गारंटी के तौर पर प्रचारित किया जाता है. इस
आजादी को नापने के लिए अमेरिका का हेरिटेज फाउंडेशन और वॉल स्ट्रीट जनरल
मिल कर पिछले 20 वर्षो से एक इकोनॉमिक फ्रीडम इंडेक्स यानी आर्थिक
स्वतंत्रता सूचकांक जारी करते हैं. इस सूचकांक में आर्थिक क्रियाकलाप के
मामले में कानून का शासन, विनियामक कुशलता, सरकारी हस्तक्षेप और खुले बाजार
जैसी कसौटियों पर देशों को रैंकिंग दी जाती है. इस सूची में उदारीकरण की
शुरुआत के 22 वर्षो बाद भी भारत की रैंकिंग 120वीं है, जबकि चीन 137वें
पायदान पर खड़ा है. इस इंडेक्स को प्रमाण मानें, तो कह सकते हैं कि भारत
में व्यापार शुरू करने, उसका विस्तार करने की राह में अब भी लाल-फीताशाही
एक बड़ा अवरोध बन कर खड़ी है. इस आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि जिस
परमिट-कोटा-लाइसेंस राज की समाप्ति का जिक्र किताबों और सरकारी नीति-पत्रों
में मिलता है, वह रूप बदल कर आज भी मौजूद है और निजीकरण, उदारीकरण और
वैश्वीकरण के रथ को रोक रहा है. लेकिन, यहां सवाल इस रैंकिंग से ज्यादा,
इसमें समाहित विचार का है, जो मानता है कि आर्थिक स्वतंत्रता व्यापक
समृद्धि लेकर आता है, जिसका आकलन प्रति व्यक्ति आय से किया जा सकता है. पर यह तर्क खुद संदिग्ध है.अनुभव बताते हैं कि अबाध
रूप से कारोबार करने की छूट से आनेवाली आर्थिक समृद्धि छन कर बहुसंख्य
आबादी तक नहीं पहुंच पा रही है, जिसने पूरी दुनिया में भीषण आर्थिक असमानता
को जन्म दिया है. आर्थिक स्वतंत्रता के विचार के केंद्र में बाजार और
मुनाफा पहले है, जन-कल्याण बाद में. इसलिए आर्थिक स्वतंत्रता इंडेक्स पर
कोई भी निष्कर्ष निकालते वक्त हमें इस विरोधाभास को जरूर ध्यान में रखना
चाहिए.
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