...इनसे बचैं तो सेवैं काशी!


रमेश पाण्डेय
चैत का महीना है, देश में चुनाव की बयार चल रही है। इस बयार के बीच जिधर देखो उधर बस एक ही चर्चा है, बस काशी की। जो काशी का मिजाज नहीं जानते, जो जानते है वे भी, दोनों काशी की चर्चा में सराबोर हैं। कई नेताओं की दुकान तो बस काशी पर बयानबाजी से ही चल रही है। देश में कई नेताओं के लिए बस काशी ही एक मुद्दा बन गया है। लगता है वे लोग यह नहीं जानते की काशी मोक्ष की नगरी है। यहां कोई भी आ सकता है, जा सकता है। एक कहावत है कि काशी आने और जाने वालों को सावधानी रखनी चाहिए क्योंकि यह कहा जाता है कि 'रांड़, सांड़, सन्यासी। इनसे बचैं तो सेवैं काशी।' कहने को तो यह कहावत है, पर इसके पीछे हकीकत छिपी है। हकीकत यह कि जिसने काशी का मिजाज नहीं जाना, वह बहुत ज्ञानी हो तो भी यहां ज्ञान से अनजान हो जाता है। हम आपका ध्यान काशी की उस संस्कृति पर भी डालना चाहते हैं, जिससे काशी विश्व प्रसिद्ध है। धार्मिक ग्रन्थों में एक प्रसंग आता है कि महर्षि वेदव्यास को अपने ज्ञान पर घमंड था, सो उन्होंने भगवान शिव के पुत्र से भी क्लर्की करवायी यानि अपनी सेवा ली। काशी को भगवान शिव की नगरी भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर टिका हुआ है। ऐसे में काशीवासियों को भगवान शिव के पुत्र का यह अपमान सहन नहीं हुआ। बदले में काशीवालों  ने वेदव्यास को ले जाकर गंगा के उस पार जंगल में छोड़ दिया। यह भी मान्यता है कि इस जंगल में शरीर से प्राण छूटने पर माता शीतला का वाहन होना पड़ता है। काशी के लोग आज भी मानते हैं कि शीतला मंदिर से सीधे उस तरफ जाने पर वेदव्यास से मुलाकात की जा सकती है। वे आज भी माता शीतला के वाहन के रुप में विद्यमान हैं। यह तो रही पौराणिक आख्यानों की बात। दूसरी तरफ देखें तो स्वामी करपात्री जैसे धर्मज्ञ को काशी से ख्याति अर्जित हुई। इतना ही नहीं राजनीति में चर्चिल का, साम्यवाद में लेनिन का, विज्ञान में आइंस्टीन का, दाल में हींग का और चूरमा में चीनी का जितना महत्व है, उतना ही आधुनिक हिंदी में भारतेंदु जी का। काशी को इस बात पर गर्व है कि उसने आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता को अपने यहां जन्म दिया जो किसी बादशाह से कम नहीं था। जिसकी देन को हिंदी जगत तब तक याद रखेगा, जब तक एक भी हिंदी भाषा-भाषी मौजूद रहेगा। और तो और लाखों अहिंदी भाषा-भाषियों को हिंदी सीखने के लिए 'पेनसिलिन का इंजेक्शन' देनेवाले बाबू देवकीनंदन खत्री (चंद्रकांता के रचयिता) काशी की ही विभूति रहे। काशी का लमही गांव उस दिन से अमर हो गया जिस दिन यहां उपन्यास सम्राट प्रेमचंदजी ने जन्म लिया। प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद विस्मिल्लाह खान को इसी धरती ने जन्म दिया। काशी नजाकत और नफासत की धरती है। देश के विभिन्न हिस्सों में लोग एक दूसरे को पुकारते समय मिस्टर, मोशाय (महाशय), श्रीमान, जनाब, हजूर, सरदारजी और सरकार आदि संबोधनों का प्रयोग करते हैं। लेकिन बनारसियों के प्रिय संबोधन हैं 'राजा', 'मालिक', 'सरदार' और 'गुरु'। इन संबोधनों में जो रस है, वह प्रांतीयता व जातीयतावादी संबोधनों में दुर्लभ है। एक और कहावत है कि प्राचीनकाल में धन की गठरी लिए यात्री पुण्य की गठरी लूटने काशी चले आते थे। इस बात का पता वाल्मीकि जी को लग चुका था। वे रास्ते के जंगलों में उन गठरियों को खाली करते रहे। पता नहीं, नारदजी को क्या सूझी कि उन्होंने ऐसे तिकड़म में उन्हें उलझाया कि वे अपना जमा-जमाया पेशा छोड़ बैठे। लेकिन हां, इसकी वजह से हमेशा के लिए अमर जरूर हो गए। 'उल्टा नाम जपा जग जाना, वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।' इतनी सारी महानताओं के बावजूद वर्तमान में काशी का स्याह पक्ष यह है कि यह नगरी पूर्वांचल के माफियाओं की शरणस्थली बन गया है। पिछले एक दशक से बडे़-बडे माफियाओं ने यहां की धरती को अपवित्र करने का काम किया। देश के हुक्मरानों की नजर इस तरफ नहीं पड़ी। काशी की इस पवित्र नगरी को दोयम दर्जा प्रदान कर दिया। आज जब भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने काशी को अपनी कर्मभूमि बनाने का ऐलान किया तो देश क्या पूरी दुनिया की नजर इस ओर पड़ गयी। आज हर कोई काशी आना चाह रहा है, यहां से चुनाव लड़ने की बात कर रहा है। सवाल यह है कि आखिर ऐसे लोग अब तक कहां रहे। वह लोग पहले काशी आकर चुनाव क्यों नहीं लड़े। जो लोग ऐसा कर रहे हैं, शायद उन्हें काशी का मिजाज पता नहीं। काशी किसी के बहकावे में नहीं बाती। बड़े-बड़े बहके लोग यहां आकर ठीक हो जाया करते हैं। शायद इसीलिए ही इस नगरी को मोक्ष की नगरी कहा जाता है। 16वीं लोकसभा के चुनाव में मीडिया, टेलीविजन, न्यूज चैनलों के कैमरों का फोकस प्वाइंट बनारस बन चुका है। मैंने सोचा कि मौका भी है और दस्तूर भी, क्यों न मैं भी इसी बहाने अपना थोड़ा 'बनारसी ज्ञान' बघार लूं।  यह तो आप सभी जानते ही होंगे। पर यह बात भी सच है कि बनारसवाले विद्वानों का हमेशा से उचित सम्मान करते आए हैं, लेकिन रंग गांठनेवालों को गर्दनिया देने से बाज नहीं आते। बनारस की चर्चा या गुणगान के लिए इतनी बात तो नाकाफी है, पर समझदार के लिए इशारा ही काफी है।
 

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