गुरु पूर्णिमा: ज्ञान नहीं, चेतना देता है गुरु

गुरु अस्तित्व देता है, ज्ञान नहीं। वह हमारी चेतना को विस्तृत करता है, ज्ञान को नहीं। वह मात्र एक बीज देता है और शिष्य भूमि बनकर उस बीज को अंकुरित होने, पनपने व खिलने देता है। गुरु-शिष्य संबंध संयोग मात्र भी है और एक होशपूर्ण चुनाव भी। यह दोनों है। जहां तक गुरु का सवाल है, यह पूर्णत: होशपूर्ण (जागरूकतापूर्ण) चुनाव है। जहां तक शिष्य का प्रश्न है, यह संयोग ही हो सकता है, क्योंकि अभी होश उसके पास है ही नहीं। मिश्च के रहस्यवादी कहते हैं, जब शिष्य तैयार हो जाता है, तब गुरु प्रकट हो जाता है। गुरु के लिए तो यह पूरी तरह से एक होशपूर्ण बात है। एक सूफी कहानी इसे समझने में तुम्हारी सहायता करेगी। सत्य को जानने की गहन अभीप्सा में एक नवयुवक ने अपने परिवार, अपने संसार को त्याग दिया और गुरु की खोज में निकला। जब वह नगर के बाहर निकल रहा था, तभी उसने एक वृद्ध को देखा। उसकी आयु लगभग साठ वर्ष रही होगी। वह एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। वह इतना शांत, आनंदित और चुंबकीय आकर्षण वाला था कि युवक अपने आप उसकी ओर खिंचा चला गया। वह उसके समीप पहुंचकर बोला, 'मैं एक गुरु की तलाश में हूं। मैं आपके ज्ञान की सुगंध को अनुभव कर सकता हूं। शायद आप मुझे बता सकेंगे कि मुझे कहां जाना चाहिए व गुरु की कसौटी क्या है.? मैं यह कैसे तय करूंगा कि यही मेरा गुरु है?' उस वृद्ध ने कहा कि यह तो बहुत सरल है। उसने विस्तारपूर्वक बिल्कुल ठीक-ठीक वर्णन कर दिया कि वह व्यक्ति कैसा होगा, किस तरह का वातावरण उसके आसपास होगा, वह कितनी आयु का होगा। यहां तक कि वह कौन से वृक्ष के नीचे बैठा मिलेगा, वहां कौन सी खुशबू आ रही होगी यह भी बता दिया। युवक ने उस वृद्ध को धन्यवाद दिया। वृद्ध ने कहा, 'मुझे धन्यवाद देने का समय अभी नहीं आया है।' तीस साल तक वह रेगिस्तानों, जंगलों, पहाड़ों में गुरु की तलाश करता रहा, पर वे कसौटियां कभी भी पूरी न हो सकीं। थक कर, पूरी तरह से निराश होकर वह अपने गांव वापस लौटा। अब वह जवान न था। जब वह घर छोड़ कर गया था, उसकी आयु तीस वर्ष के लगभग थी। अब वह करीब साठ वर्ष का हो गया था। पर जैसे ही वह अपने गृहनगर में प्रवेश करने को था, उसने उसी वृद्ध को वृक्ष के नीचे बैठा हुआ देखा। वह अपनी आंखों पर विश्वास ही न कर सका। उसने कहा, 'हे भगवान, इसी आदमी का तो उसने वर्णन किया था। उसने यह तक कहा था कि वह नब्बे साल का होगा. यही तो वह वृद्ध है। मैं कितना बेहोश रहा होऊंगा कि मैंने उस वृक्ष को भी नहीं देखा, जिसके नीचे वह बैठा हुआ था। और वह सुगंध, जिसका उसने जिक्र किया था, वह दीप्ति, वह उपस्थिति, वह उसके चारों ओर की जीवंतता.।' वह वृद्ध के पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा, 'यह कैसा मजाक है? तीस साल तक मैं भटकता रहा और आप सब जानते थे।' उस वृद्ध आदमी ने कहा, 'मेरे जानने से क्या अंतर पड़ता है। सवाल यह है कि क्या तुम जानते थे? मैंने तो इसका एकदम ठीक-ठीक वर्णन कर दिया था, पर फिर भी तुम्हें भटकना पड़ा। केवल इस तीस साल के संघर्ष के बाद ही तुममें थोड़ा-सा होश आया है। उस दिन तुमने मुझे धन्यवाद देना चाहा था और मैंने तुमसे कहा था कि अभी समय नहीं आया है, एक दिन समय आएगा। तुम उसी दिन मुझे चुन सकते थे, लेकिन तुम्हारा भी दोष नहीं, तुम्हारे पास वे आंखें ही न थीं। तुमने मेरे शब्द तो सुने, पर तुम उनका अर्थ न समझ सके। मैं तुम्हारे सामने अपना ही वर्णन कर रहा था, पर तुम मेरी खोज कहीं और करने की सोच रहे थे।' शिष्य गुरु को केवल संयोग से ही पाता है। वह चलता है, गिरता है, फिर-फिर उठ कर खड़ा होता है। धीरे-धीरे थोड़ी-थोड़ी जागरूकता उसमें आती जाती है। जहां तक गुरु का संबंध है, वह कुछ विशेष लोगों की होशपूर्वक प्रतीक्षा कर रहा होता है। वह उन लोगों तक पहुंचने का हरसंभव प्रयत्न भी करता है, लेकिन कठिनाई यह है कि वे सभी बेहोश हैं।
गुरु अस्तित्व देता है, ज्ञान नहीं। वह तुम्हारे अस्तित्व को, तुम्हारे जीवन को अधिक विस्तृत करता है, लेकिन ज्ञान को नहीं। वह तुम्हें एक बीज देता है और तुम भूमि बन कर उस बीज को अंकुरित होने, पनपने व खिलने दे सकते हो।

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