भारतीय मानस की धर्म-प्राण है देवनदी गंगा

मान्यता है कि गंगा में अवगाहन हमारे दस दोषों को दूर कर देता है, लेकिन यह तभी होगा, जब गंगा निर्मल और शुद्ध रहेंगी। जैसा प्रयास भगीरथ ने इस देवनदी को पृथ्वी पर लाने को किया था, वैसा ही 'भगीरथ प्रयास' उसके शुद्धीकरण के लिए भी करना होगा। हिमालय के गोमुख से चलकर बंगाल में गंगा-सागर तक की विशद यात्रा करने वाली गंगा भारत की वस्तुत: जीवन-धारा है। विराट भू-भाग को सिंचित कर अन्न का विशाल भंडार संभव-साकार करने वाली यह नदी इस तरह करोड़ों लोगों की क्षुधा-तृप्ति का आधार तो गढ़ती ही है, धर्म-प्राण भारतीय मानस की अपराजेय श्रद्धा-भावनाओं को भिगोती हुई लगातार असंख्य लोगों की आत्मा और आस्था को भी संतृप्त करती चल रही है। इसके तटवर्ती नगरों-महानगरों की समृद्धि भी सबके सामने है।
इस तरह सभी रूपों में यह हमारे देश-समाज की प्राण-धारा है। इतना कुछ होने के बावजूद यह महान नदी यदि आज अपने अस्तित्व-संकट से जूझने को विवश है, तो यह हमारे समय की एक बड़ी विडंबना है। इससे बड़ा दुर्भाग्य भला दूसरा क्या हो सकता है कि गंगा की महत्ता को जानते-समझते हुए भी हम इसे प्रदूषण की मार से मिटते देखने को बाध्य हैं! इसे विचित्र व विडंबनापूर्ण संयोग ही कहा जाएगा कि गंगा पौराणिक कथाओं के अर्वाचीन प्रसंग-काल से लेकर अब तक संघर्ष ही करने को विवश हैं। बेशक आज भी यह नदी करोड़ों धर्म-प्राण लोगों की आस्था से जुड़ी हुई हैं, जिनकी पूजा की जाती है, लेकिन वस्तुतथ्य यह भी है कि यह नदी आज अपने अस्तित्व-संकट तक से जूझ रही है। हिमालय के गोमुख से चलते ही और गंगा-सागर तक पहुंचते-पहुंचते इस नदी का क्या हाल हो जाता है, यह सर्वज्ञात है। इसके तट के तमाम नगर-महानगर और औद्योगिक इलाके इसे किस कदर लगातार प्रदूषित कर रहे हैं, यह एक दुखमय संदर्भ है। ऐसे में कई बार तो यहां तक महसूस होने लगता है कि हम गंगा के साथ सचमुच आस्था का निर्वाह भी कर पा रहे हैं या नहीं! आरती का भव्य आयोजन करने या धूप-बत्ती से पूजन भर कर देना ही क्या पर्याप्त है? सवाल यह भी है कि क्यों गंगा में आस्था रखने वाले लोग भी इस देवनदी के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने गुरुतर दायित्वों का निर्वहन नहीं करना चाहते! इसमें दो राय नहीं कि गंगा में स्नान का जैसा महात्म्य स्थापित है, उसके मद्देनजर श्रद्धालु विभिन्न विशिष्ट धार्मिक तिथियों-अवसरों से लेकर सामान्य दैनंदिनी तक में उसमें स्नान-लाभ लेंगे ही। बेशक स्नानादि से नदी के अस्तित्व को वैसा खतरा कदापि नहीं है, जैसा औद्योगिक कचरे के प्रहार से। ऐसे में अनिवार्यता तो यह भी है कि गंगा में औद्योगिक कचरे के निस्तारण पर पूरी तरह रोक लगाने की कवायद शुरू हो। बड़े स्तरों पर कचरा उगलने वाली अधिकांश औद्योगिक इकाइयां तटवर्ती नगरों-महानगरों में ही स्थित हैं।
आवश्यकता है कि नागरिक चेतना नया आकार ग्रहण करे। हम इस बात को समझें कि इस नदी को बचाने के लिए हमें लगातार प्रयास करना है। इसके तहत तटवर्ती इलाकों के लोग लगातार मुस्तैद रहें कि कैसे गंगा को प्रदूषण से मुक्त रखा जाए! इसे बचाने और बनाए रखने के ठोस प्रयासों को ही गंगा के प्रति सच्ची आस्था-श्रद्धा की संज्ञा दी जा सकती है।

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