इस देश ने चरित्र खो दिया
किसी भी समाज को संकट में आध्यात्मिक ताकतें रास्ता दिखाती रहीं हैं.
खासतौर से भारत में. 12वीं शताब्दीसे 16वीं-17वीं शताब्दी तक, जब भारत
लगातार बाहरी आक्रमण झेल
रहा था, उसकी संस्कृति, इतिहास और मान्यताओं पर
हमले हो रहे थे. राजा भोगी हो गये थे. तब भक्त कवियों ने, सच्चे
आध्यात्मिक संतों ने इस देश को राह दिखायी. आज आसाराम बापू या उनके पुत्र
नारायण साईं जैसे लोग धर्म और अध्यात्म की बात करते हैं. निर्मल बाबा के
टोटकों में देश मुक्ति तलाश रहा है. दरअसल, इस देश ने चरित्र खो दिया है.
भारतीय राजनीति में गांधी के अवतरण ने इस चरित्र को ही निखारा. संघर्ष की
आग में तपा कर गांधी ने नेताओं का चरित्र निखारा. गांधी की ताबीज थी, साधन
और साध्य में एकता. यानी कर्म और चरित्र की एकता. बानगी के तौर पर, सिर्फ
कामराज को लें. वह अपढ़ थे. समाज के सबसे कमजोर तबके से थे. देश के दो-दो
प्रधानमंत्रियों के चयन में उनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका. उन्हें
प्रधानमंत्री बनने के लिए लोगों ने कहा. उन्होंने मना कर दिया. आज सबसे
पहले कुरसी चाहिए. पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसे, यही राजनीति का गणित हो
गया है. गांधी के दौर की ही एक और बानगी. देशबंधु चित्तरंजन दास (सीआर
दास) देश के शिखर के वकील थे. उन दिनों उनकी प्रैक्टिस लाखों की थी, जो आज
के मूल्यों में बदल दें, तो करोड़ों-अरबों में होती. उस कमाई को छोड़ कर वह
देश बचाने की आग में कूद गये. जीवन के अंतिम दिन लगभग आर्थिक तंगी में
गुजारे. बहुत दिनों बाद जब महर्षि अरविंद के बचाव वकील के रूप में वह खड़े
हुए, तो उनके उद्गार दुनिया के इतिहास में दर्ज हो गये. यह चरित्र बल के
कारण था. भाईश्री (अत्यंत विलक्षण संत) का सुनाया प्रसंग है. बुद्ध के जीवन
से अद्भुत प्रसंग.‘‘श्रावस्ती का था देवदत्त. वहां का नगर-सेठ था. श्रावस्ती और आसपास के
लोगों में ‘अनाथपिंडक’ के नाम से विख्यात था. जहां भी वह रहता था, उसके
आसपास के इलाके में जिस किसी भी व्यक्ति को भोजन अनुपलब्ध हो, उन्हें
अनाथपिंडक भोजन कराता था. एक बार वह अपने बहनोई से मिलने राजगृह आया.
राजगृह घूमते हुए उसे जानकारी मिली कि कोई एक दिव्य महापुरुष राजगृह के पास
ही गृध्रकूट पर्वत स्थित वन में रहते हैं. उन्हीं दिव्य महापुरुष का दर्शन
करने एक दिन अनाथपिंडक चल पड़ा. रास्ते में उसे खयाल आया कि वह एक
महापुरुष के पास खाली हाथ जा रहा है. उसे कुछ फल-फूल अपने साथ ले लेना
चाहिए था. लेकिन वह अब पीछे लौट भी नहीं सकता था. अपने बहनोई के घर से वह
काफी दूर निकल आया था. एकाएक उसकी नजर उससे आगे चल रही एक गरीब बुढ़िया पर
पड़ी. उस बुढ़िया के हाथ में कमल का एक फूल था. तेज कदमों से चलते हुए
अनाथपिंडक ने उस गरीब, फटे वस्त्रों में लिपटी वृद्धा के नजदीक जाकर कहा,
‘आर्ये! क्या इस कमल के फूल को आप मुङो देंगी?’ थोड़ी देर रुक कर उसने फिर
कहा, ‘मैं इसके लिए एक स्वर्ण-मुद्रा आपको दूंगा’. उस वृद्धा ने कुछ नहीं
कहा, चुपचाप चलती रही. साथ चलते हुए अनाथपिंडक ने थोड़ी देर बाद कहा,
‘आर्ये! मैं इस कमल के फूल के बदले आपको सौ स्वर्ण-मुद्राएं दूंगा’.
बुढ़िया चुपचाप चलती रही. उसने जैसे कुछ सुना ही नहीं. श्रवस्ती का नगर-सेठ
अनाथपिंडक अपने को हारता देख, खीज कर बोला, ‘आर्ये! मैं इस कमल के फूल के
बदले आपको एक सहस्र स्वर्ण-मुद्राएं दूंगा’. बुढ़िया इस बार रुक गयी और
उसने अनाथपिंडक से कहा, ‘भंते! आप अपना समय नष्ट कर रहे हैं. इस कमल के फूल
के बदले धरती की सारी संपत्ति भी कोई मुङो दे, तो भी मैं इसे नहीं दूंगी.’
ऐसा कह कर वह फिर चुपचाप चलने लगी. अनाथपिंडक की उत्सुकता अब अपने शिखर पर
थी. वह व्याकुल हो उठा, यह जानने के लिए कि आखिर यह गरीब बुढ़िया इस कमल
का करेगी क्या? ऐसी कौन-सी बात है, ऐसा कौन-सा उपलक्ष्य है, जिसके सामने
धरती की सारी संपत्ति भी छोटी पड़ गयी? इसलिये अनाथपिंडक ने उस वृद्धा से
पूछा, ‘क्या आप मुझे बतायेंगी कि इस फूल का आप क्या करेंगी?’ बुढ़िया ठहर
गयी और बोली, ‘गृध्रकूट पर्वत के बगल वाले वन में एक दिव्य महापुरुष रहते
हैं. तथागत कहते हैं, उन्हें लोग. उन्हीं को देने ये कमल का फूल मैं ले जा
रही हूं.’ स्तब्ध हो गया था, अनाथपिंडक. इस गरीब बुढ़िया की तथागत-भगवान
बुद्ध के प्रति गहरी आस्था ने अनाथपिंडक को हिला कर रख दिया. एक ऐसी आस्था,
एक ऐसी श्रद्घा जो अमूल्य थी! ऐसे ही अनेक मूल्यों की नींव पर कोई भी
सभ्य और सुसंस्कृत समाज खड़ा होता है. बाजार-अर्थव्यवस्था के प्रभाव से आज
भारत में उनकी भी बोली लगने लगी है, जो कल तक अमूल्य थे.’’ बहुत पहले जब चरित्र के रास्ते मुल्क भटकने लगा, तो इस मुल्क में एक
अकेली आवाज उठी थी, वह आवाज जेपी की थी. 1970 में उन्होंने कहा था, ‘जब मैं
देश के नाजुक स्वास्थ्य की दशा की समीक्षा करता हूं, तो यह कहने में मुङो
कोई संकोच नहीं कि यह सब गिरते नैतिक मूल्यों का नतीजा है. सार्वजनिक जीवन
का कोई भी क्षेत्र, चाहे वह राजनीति हो या सरकार या शिक्षा या कारोबार,
व्यापारिक संगठन या सामाजिक संगठन - ऐसा नहीं है, जो गिरते नैतिक मूल्यों
से अछूता हो.’ जयप्रकाश नारायण ने जब यह नैतिक मूल्यों का ह्रास देखा, तो
मृत्युशय्या से संग्राम में कूद पड़े. देश उनके साथ खड़ा हो गया, क्योंकि
उनमें चरित्र बल था. आज देश का पतन निम्नतम धरातल पर है, पर कहीं कोई बेचैन
आवाज सुनायी नहीं देती. नेताओं के बारे में कुछ न कहना बेहतर है.
सार्वजनिक जीवन में इतना घटिया और निम्न स्तर कभी नहीं रहा. हर नेता एक
दूसरे के प्रति ओछी बातें कर रहा है. जो सत्ता के शिखर पर बैठ कर खुद पर
संयम नहीं रखते, वो क्या देश और समाज को राह दिखायेंगे?
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