जूलियन बार्नेस की अच्छी किताब का शीर्षक है-’द सेंस ऑफ एन एंडिंग’.
हिंदी में इसे ‘खत्म होने का बोध’ कह सकते हैं. यह अनिवार्यत: बीते वर्ष के
लिए अतीत-मोह (नॉस्टैल्जिया) पैदा करता है. सौभाग्य से, अतीत के प्रति यह
प्रेम हमें फिर से उन सुर्खियों में निमग्न नहीं करता, जो रोजाना
ध्यानाकर्षण का विषय थे, जो अहं, झूठ, पाखंड व दंभ का विषाक्त घालमेल थे,
जो हत्यारी भीड़वादी मानसिकता से लिपटे थे, पर जिसे प्रासंगिक बना दिया
गया. इसके उलट, एकांत में खड़े कई जगमग दीपस्तंभ भी थे.2013 के आनंददायी पलों में से एक तो बिल्कुल हाल का है. हाल ही में भारत
और दक्षिण अफ्रीका के बीच संपन्न टेस्ट मैच, जिसे मैंने केरल के एक
रिसॉर्ट में तुलनात्मक रूप से अकेलेपन में देखा. यह जीत के लिए आमादा दो
टीमों के कौशल और चरित्र का खतरनाक इम्तिहान था, जो जीत न मिलने की सूरत
में विपक्ष को भी नहीं जीतने देना चाहते थे. अंतिम दिन मानो किसी महाकाव्य
सरीखा था, स्थायी खेल के बीच जब-तब बिजली की चौंध जैसा. भारत को फिसलते
देखना दुष्कर था, पर टीवी बंद करना नामुमकिन था.
हार स्वीकारना आसान है. हम इसे अपनी आम जिंदगी में रोजाना करते हैं. पर,
जीत के इतने करीब आकर हारना बिल्कुल ही अलग बात है. ऐसी हार का सबसे बड़ा
कारण विजेता की ताकत नहीं, बल्कि हारनेवाले की लापरवाही है. जब आप किसी चीज
को बेहद आसान समङोंगे, तो आपकी आंखों के सामने से जीत फिसल जायेगी. मैं
नहीं जानता, कि कला अब भी जिंदगी की नकल करती है, शायद नहीं. हालांकि, खेल
के मामले में जरूर ऐसा है. अंतिम घंटी के बजने और अंपायर (या शायद मुख्य
चुनाव आयुक्त) के खेल खत्म होने की घोषणा करने तक कुछ भी तय नहीं है. इस साल पढ़ी बेहतरीन किताबों में दोनों ही अमेरिका से हैं. गैरी बास की द
ब्लड टेलीग्राम : इंडियाज सीक्रेट वार इन ईस्ट पाकिस्तान,
दिल्ली-प्रायोजित गुप्त-युद्ध पर कम और वाशिंगटन की पाकिस्तानी सेना द्वारा
1971 के दुर्भाग्यपूर्ण वर्ष में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में किये जा
रहे नरसंहार के प्रति उदासीनता पर अधिक है. और, जो बाद में एक युद्ध में
तब्दील हुआ, जिससे एक नया मुल्क बांग्लादेश बना. दूसरी बेहतर किताब स्टीफन
किंजर की द ब्रदर्स : जॉन फोस्टर डलेस, अलेन डलेस एंड देयर सीक्रेट सेकंड
वल्र्ड वॉर है, जो दो भाइयों की कहानी बताता है, जिनमें से एक विदेश मंत्री
है और दूसरा सीआइए का प्रमुख. उन्होंने 1952 से 1960 के बीच आइजनआवर
प्रशासन के दौरान अमेरिकी विदेश नीति को नियंत्रित किया है. अगर आप सोचते
हैं कि मुखपृष्ठ ही काफी रहस्यात्मक है, तो निश्चिंत रहिये कि बीच के
पृष्ठों में काफी रहस्य खोले गये हैं. अगर आप अमेरिका को गरियाने में
व्यस्त होना चाहते हैं, तो आगे बढ़िये, किताब आप ही के लिए है. आजीवन
विस्फोट के लिए काफी मसाला इसमें मौजूद है. हालांकि, मैं उन अनलिखे
वाक्यांशों का भी मुरीद बन गया, जिस पर किसी भी लेखक ने जोर नहीं दिया है.
अमेरिका अपने राष्ट्रीय हितों के मामले में किस तरह केंद्रित व कठोर हो
जाता है, अपने अनेकमुखी नेतृत्व के बावजूद. राष्ट्रीय हित तेजी से बदलते हैं. इस दशक का बेजोड़ फैसला अगले दशक की
तबाही हो सकता है. हरेक सही में शायद कुछ गलत होता है, भले यह ठीक इसी
अनुपात में उलटे तौर पर काम न करें. हालांकि, राष्ट्रीय नीति वर्तमान दर्शन
से तय होती है, पीछे देखने से नहीं. 1950 के दशक में अमेरिका के लिए यह
साम्यवादियों से लबरेज दुनिया में शीतयुद्ध लड़ना था. इसके लिए नैतिकता
बंधक बनती थी, तो बनने दीजिये. आइजनआवर, स्टालिन और चर्चिल की उस अमेरिकी
और यूरोपीय पीढ़ी ने एक ऐसे युद्ध का सामना किया है, जो पूरब और पश्चिम को
पूरी तरह से नष्ट कर सकती थी. (उदाहरण ही सही, यदि जर्मनी ने भी 1945 तक
परमाणु हथियार बना लिये होते). इसे कटुता के और अध्यायों की जरूरत नहीं थी,
न इसने हताहतों की चिंता की थी. 1971 में रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंगर
एक अन्य बड़े खेल पर अपना ध्यान लगाये थे, जिसके बारे में वे मानते थे कि
उससे अंतरराष्ट्रीय संबंधों की गतिशीलता बदल जायेगी (जैसा कि सचमुच हुआ भी)
और पीढ़ियों के लिए दुनियावी संबंध प्रभावित होंगे. बांग्लादेश शायद ही
उनकी सोच में था, वे इस पर ध्यान लगा रहे थे कि च्यांग काइ शेक के ताइवान
का बलिदान करें और माओवादी चीन को वैध बना कर एक स्पष्ट असंगति को ठीक कर
सकें. चीन और रूस अपनी राष्ट्रीय अनिवार्यताओं की वजह से अलग होना शुरू हो
चुके थे. अमेरिकी हस्तक्षेप ने किसी साम्यवादी एका की संभावना को खत्म कर
दिया. हौवा बनाये गये कम्युनिस्ट इंटरनेशल की सूरत अब दरअसल कम्युनिस्ट
नेशनल्स की तरह लग रही थी. कोई अच्छा सिद्धांतकार 1971 से 1991 के बीच एक
सीधी रेखा खींच सकता था, जब सोवियत संघ का पतन हुआ और रूसी साम्यवाद बिखर
गया.
कोई सोच सकता है, भारत की विदेश नीति में स्वहित का इस्पात और अधिक कब
डाला जायेगा, अच्छे इरादों की करी तो बहुत खिला ली. अच्छा है कि भारतीय
राजनयिक अपने में से एक के लिए उठ खड़े हुए. हालांकि, यह केवल इसका सबूत है
कि वे अकेले और एक साथ क्या कर सकते हैं, अगर मजबूती के साथ अपने देशहित
में खड़े हो जाएं. कुल मिलाकर मैं यही कहूंगा, अच्छा हुआ 2013 सदा के लिए चला गया, 2014 जिंदाबाद!
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