छठ महापर्व सामाजिक समरसता को विकसित व उर्वर भूमि प्रदान करता है. बिहार सहित उत्तर भारत के प्रमुख क्षेत्रों से होते हुए छठ का विस्तार मुंबई व दिल्ली तक हो गया है. बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग जहां-जहां गये, वे अपनी परंपरा को साथ लेते गये. चार दिवसीय छठ व्रत के दौरान व्रती के साथ उनके परिजन, गांव व मुहल्ले के लोग एकजुट होकर महापर्व में अपनी सहभागिता निभाते हैं. सूर्य के प्रकाश के समान व्रती की आभा समान रूप से अपने आसपास रहनेवालों के बीच फैल जाती है. भगवान सूर्य की समस्त ऊर्जा बिना किसी भेदभाव के अमीर-गरीब, कंद-मूल, सूक्ष्म व विशाल जीव-जंतुओं को समान रूप से मिलती है. छठ के दौरान गांव में आसानी से उपलब्ध होनेवाली सामग्री का उपयोग किया जाता है. बांस से निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतन, गन्ने का रस, गुड़ व चावल आसानी से उपलब्ध होनेवाली सामग्री है.
मुसलिम महिलाएं चूल्हा बनाती हैं, तो पुरुष बहंगी बनाते हैं. भंगी समाज के लोग टोकरी व सूप बनाते हैं, तो कुम्हार मिट्टी के दीये व बरतन उपलब्ध कराते हैं. मुसहर व मल्लाह समाज के लोग पानी व मिट्टी के अंदर पैदा होनेवाले फल निकालते हैं. घेचूल व शारुख पानी के अंदर होते हैं. छठ में इनका भी प्रयोग होता है. विभिन्न प्रकार के किसानों की भी सहभागिता होती है. किसी किसान से कंदली फल, तो किसी से अमरूद, तो कोई चावल देता है. मुसलिम समाज के लोग ही लहठी व चूड़ी बनाते हैं. अलता भी उन्हीं के द्वारा बनाया जाता है. सभी सामान छठ में प्रयोग होता है.किसी-किसी व्रती के यहां मनता माना जाता हैं कि इस बार फलां काम होने पर नाच करायेंगे, तो उसमें समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लोग ही नाच-गान को घाट पर प्रस्तुत करते हैं. पूरा समाज छठ में मिश्रित हो जाता है. ऐसा नहीं कि सब जैसे-तैसे काम करते हैं, बल्कि पूरी पवित्रता व आस्था के साथ हर काम को समाज के सभी वर्गो द्वारा पूरा किया जाता है. गांव व मुहल्ले के लोग घाट पर सफाई में सहयोग करते है. कोई चेन स्नेचर भी हो, तो उस दिन किसी का गिरा हुआ गहना सहृदयता के साथ लौटा देता है. दरअसल,  पूरी आस्था के साथ समाज का हर वर्ग व्रत के आयोजन में शामिल होता है.
इसलिए इसे लोक आस्था का महापर्व कहा गया है. भगवान सूर्य के प्रताप से समाज में एक-दूसरे के प्रति सौम्यता व सहजता का वातावरण विकसित होता है. छठ में समाज का कोई तबका अछूता नहीं रहता है.
सभी बढ़-चढ़ कर अपनी ओर से व्रती को सहयोग करते हैं. छठ परंपरा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. सास से यह परंपरा बहू व बेटियों में आती है, फिर धीरे-धीरे यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है. इस व्रत को करने के बाद छोड़ा नहीं जाता है. अगर कोई छोड़ता है, तो उसे सदा के लिए छोड़ देता है. कई लोग छोड़ने के बाद भी अपना सूप दूसरे को सौंपते हैं. ऐसे में एक-दूसरे के प्रति लगाव व सद्भाव का विकास होता रहता है. मिथिलांचल में तो कई महिलाएं अपने घर के पालतू जीव गाय-भैंस के नाम पर भी छठ करती हैं. उनकी मनता होती है कि इस बार गाय का बच्च ठीक से हो जायेगा, तो सूप चढ़ायेंगे. छठ पर्व के दौरान आस्था चरम पर होती है.

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