दिमागी बुखार का कहर



पूर्वी उत्तर प्रदेश में मच्छर  व जल जनित बीमारियों का प्रकोप जिस तरह बढ़ता जा रहा है, उससे सरकारी तंत्र के साथ-साथ नगर निगम और स्वास्थ्य विभाग अपने बुनियादी दायित्वों के निर्वहन के प्रति सजग-सचेत नहीं है । राज्य  सरकार के विभागों के काम-काज की पोल खुल चुकी है। मच्छरों के उन्मूलन की जिम्मेदारी निभाने वाले राज्य सरकार के विभाग किस तरह से निष्क्रिय हो गये हेै, वह बढ़ती हुई इन बीमारियों का प्रकोप से अन्दाजा लगया जा सकता है, क्योंकि नगर निगम और स्वास्थ्य विभाग अपने बुनियादी दायित्यों का निर्वाहन के प्रति सजग-सचेत नज़र नहीं आ रहें है। मच्छरों के उन्मूलन की जिम्मेदारी निभाने वाले राज्य सरकार के विभाग किस तरह निष्क्रिय व नाकारा साबित हो रहे है, इससे स्पष्ट पता चलता है, कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिन जिलों में जे ई जापानी इंसेफेलाइटिस (दिमागी बुखार) की बीमारी कहर बरपा रही है, उनमें मच्छरों का प्रकोप कम होने के बजाय बढ़ रहा है। जब कि इस स्थिति से  राज्य सरकार और उसका स्वास्थ्य विभाग भली भॉति अवगत है कि गोरखपुर समेत आस-पास के अन्य जिलों में इंसेफेलाइटिस दिमागी बुखार किस तरह प्रति वर्ष सैकड़ो लोगों की जान ले रही है। बात करें, पिछले 37 वर्षो में एक लाख से ज्यादा लोग मौत के मुॅह में समा चुके है, इस जल जनित बीमारी से रोज औसत 3 से 4 बच्चे मौत के गाल में समा जाते है, इस वर्ष जनवरी से अक्टूबर तक करीब पॉच सौ बच्चों की मौत हो चुकी है । साल दर साल बढ़  रहा है मरने वालों के आंकडे़ यह बताते है कि राजनेतायों में राजनैतिक इच्छाशक्ति न होने के कारण  इस तरह की धटना एक महामारी की शक्ल मेे तब्दील हो चुकी है। यह विचित्र बात है कि राज्य सरकार की ओर से एक तरफ तो यह दावा किया जाता है कि वह इंसेफेलाइटिस पर काबू पाने के लिए प्रतिबद्व है, और दूसरी ओर एक सर्वे में यह सामने आया कि मानसून शुरु होते ही मच्छरों की संख्या बढ़नी शुरु हो गई। मालूम हो कि यह वही मौसम है जब इंसेफेलाइटिस पूर्वी  उत्तर-प्रदेश में दस्तक देती है। इससे  तो यही साबित होता है कि, इंसेफेलाइटिस पर अंकुश लगाने के शासन-प्रशासन के दावे नितांत खोखले है। 66 वर्षो की आजादी के बाद एक तय शुदा बीमारी से हमारी सरकारें क्यों नहीं  निजात पा रही है। पूर्वाचंल मेें ले दे कर बीआरडी मेडिकल कालेज  जहॉ  एक पंलग पर दो-दो मरीजों को लेटा कर इलाज हो रहा है, वहीं अब तक लाखां मरीज इस बीमारी से दम तोड़ चूके है , तथा पिछले 35 वर्षो मे करीब 117106 से अधिक मरीज विकलांगता झेल रहे है, जो एक अभिशाप मान रहेें है, ये आकडे़ उनके है जो बी0 आर0 डी0 मेडिकल कालेज मेें भर्ती हुए तथा बहुतोें को तो अस्पताल नसीब ही नहीं हुआ पता नहीं कितने मरीज तो इलाज व अस्पताल के अभाव में घर पर ही दम तोड़ चूके होगे। जानकारों की माने तो सन् 1978 से यह कहर अभी भी बदस्तूर जारी है। महामारी लगातार मासूमों की बलि ले रही है। दिमागी बुखार से ग्रसित पूर्वाचंल के लोग पूरी तरह से टूट चूके है, इस रोग में 35 से 40 प्रतिशत के लगभग मानसिक रोगी हो जाती है। खून की कमी, कुपोषण गरीबी व चिकित्सा सुंविधाओं के अभाव में यह वीभत्य स्थिति में हो जा रही है, उस मानवाधिकार के पुरोधाओं का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया ? (डब्लू एच ओ) ने इस जानलेवा बीमारी से निपटन के लिए क्या किया ? हर वर्ष जब उक्त महामारी फैलती है तब मंत्रियोें के दौरे शुरु हो जाते है। वाहनों का काफिला फल एवं कुछ धनराशि देकर इसका कर्तव्य पूरा हो जाता है यदि समाजशास्त्री इस पर अध्ययन एवं शोध करें तो इस महामारी का सामाजिक वीभत्स रुप पता चलेगा जिसमें अनेक परिवारों के एक मात्र शिशु मृत्यु का शिकार हो जाता है। अनेक परिवार में एक से अधिक शिशु विकलांगता का शिकार हो जाते है। कई परिवार के  जो रोजी-रोटी कमाने वालों की मृत्यु हो जाती है। उनके सामने भूखमरी आ जाती है। कितनी महिलाओं का सुहाग उजड़ जाता है। कई परिवार में बच्चे अनाथ हो जाते है, जिनके माता-पिता दोनों मृत्यु के शिकार हो जाते है बाद में कई परिवारों मंे भूखमरी से मृत्यु हो जाती है । यदि परिवार में एक विकलांग बच्चें के दवा इलाज व विशेष देखभाल पर खर्चों का अनुमान लगाया जाय तो चार से पॉच हजार रु0 प्रतिमाह आएगा। उन परिवारों में जिनको एक वक्त की रोटी नसीब न हो, जो मजदूर है, किसान है। वे इस खर्चे को कैसे वहन कर सकता है ? इसके परिणामस्वरुप यह बच्चे जो परिवार व समाज पर बोझ है। यदि 37 वर्षो के दौरान फैली महामारी पर शोध किया जाए व आंकलन किया जाए तो ज्ञात होगा कि इस महामारी के परिणामस्वरुप बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हो गयी लाखों लोग विकलांगता का अभिशाप झेल  रहंे है । सरकारी अस्पताल, स्वास्थ्य विभाग जिनको इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है, कहना है कि हमारे पास इलाज हेतु बेहतर इन्तजाम है डाक्टरांे और संसाधनों की कमी नही है, किन्तु हकीकत तो कुछ और ही बयां कर रही है कि रात में तो डाक्टर नदारत रहतें है मरीज कराहता रहता है तीमारदार उन डाक्टरों को ढूढते रह जातें है और मरीज दम तोड देता है किन्तु डाक्टर ढूढने से भी नही मिलते। एक-एक बिस्तर पर 2-3 मरीजों को लेटाया जाता है जगह न मिलने पर जमीन पर ही मरीज इलाज कराता है दवाइयों के नाम पर डाक्टर साहब तीमारदार को एक दवाइ का पर्चा पकडाते हुए कहतें कि ये दवाइयां यहां उपलब्ध नहीं है बाहर से जल्दी लाओं देर मत करना वर्ना कुछ भी हो सकता है, मरीज के डर से तीमारदार दवाइयों का इन्तजाम करता है  परन्तु ये राज्य सरकार बडे़-बडे़ दावे करने से नहीं चूकती है, कि हमारे पास किसी भी संसाधनों की कमी नहीं है पिछलें तीन दशक से लगातार सरकार के सारे संसाधनों के दावों की सारी कलई खुलकर सामने आ गई है, और इसे पूरा भारत देख रहा है कि संसाधनों की कमी के कारण ही गोरखपुर में मच्छरो के कारण इंसेफेलाइटिस (दिमागी बुखार)  बच्चों को अनगिनत संख्या में लीलता जा रहा है, और सरकार तमाशबीन की तरह अपने उपलब्धियों को गिनाने मेें पीछे नहीं हटती।जब कि इस बीमारी से सरकार सवालों के कटधडे में है । जापानी इंसेफेलाइटिस की वजह सिर्फ गन्दगी ही है, सफाई के नाम पर नगर-निगम का अता-पता नही रहता जल भराव, कूड़े का ढेर मच्छरों का धर बन चुका है मच्छरों को मारने के लिए कोई दवाइ नहीं डाली जाती ग्रामीण इलाकांे तथा नालियों की साफ-सफाई तो केवल कागजोें का हिस्सा बन कर रह गए हैं। सरकार सफाई अभियान में नए-नए शोध कर रही है। एक शोध के दौरान पता चला कि वायरसों का संक्रमण पूर्वांचल में बहुत तेजी से फैलता है, बावजूद इसके जानकारी के बाद सरकार इसके खिलाफ सख्त कदम उठाने में सकिय क्यों नही ? यह एक अति संवेदनशील मुद्दा है, जिस पर हमारी सरकारें मौन साधे बैठी है, वोट बैंक की राजनीति के चलते करोडों की लैपटाप बॉटें  जा रहें है, एम्स रायबरेली में खोला जा रहा है जबकि रायबरेली के लोगों के लिए पी0 जी0 आई0 लखनऊ पहले से ही है, तो फिर एम्स रायबरेली में क्यो ं? फूड प्रोसेसिंग फैक्टी, रेल कोच फैक्ट्री इत्यादि यह क्षेत्रवाद, जातिवाद व वोट बैंक की राजनीति नहीं है तो क्या है ? आज कि पूर्वी उत्तर-प्रदेश की सबसे बड़ी जरुरत है वह है मच्छर जनित बीमारी इंसेफेलाइटिस का उन्मूलन व गोरखपुर में एम्स। जब इंसेफेलाइटिस सरीखी गम्भीर बीमारी की रोकथाम के लिए सरकारी तंत्र की सक्रियता का यह हाल है तो यह अनुमान सहज ही लगाया जा  सकता है कि अन्य बीमारियों पर अंकुश लगाने के लिए कितनी सक्रियता का परिचय दिया जा रहा होगा। इसे सरकार की संवेदहनहीनता नहीं तो और क्या कहा जाएगा कि जानलेवा इंसेफलाइटिस पर अंकुश नहीं
लगाया जा पा रहा है, जो प्रति वर्ष एक निश्चित समय पर दस्तक देती है और जिसकी रोकथाम के लिए धन की भी कहीं कोई कमी नहीं, केवल कमी है तो एक इच्छाशक्ति की। चुनाव के वक्त राजनीतिक दल इस महामारी से उबरने का मद्दा क्यों नहीं बनाते, एक तरफ सरकार लगातार यह खोखला दावा कर रही है कि ’’बचपन बचाओं’’। किन्तु पूर्वांचल में मरने वाले बच्चे उस आन्दोलन का हिस्सा नहीें है। विगत 37 सालों से मौत का तांडव चल रहा है, इस पर अनेक समाचार, लेख, आलेख लिखे गये किन्तु हमारी देश की सरकारें बिलकुल सुन्न हो गयी है। एक इंसान के लिए पॉच मूलभूत सुविधाओं की आवश्कता होती है- रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा। सरकार की मूलभूत सुविधाओं से सारा ध्यान भटक सा गया है उसका ध्यान केवल वोट बैंक की राजनीति, खेलखिलाड़ी,खिलाड़ियों का सम्मान व एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप इत्यादि तक सीमित रह गया है । ऐसे में हमारें देश का भविष्य कहां तक सुरक्षित है । बच्चों के चाचा ’’जवाहर लाल नेहरु’’ आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने एक नारा दिया था कि बच्चे देश के भविष्य है।   जवाहर लाल नेहरु यह नारा स्मरणहीन हो चुका है इसलिए स्वास्थ्य विभाग बीमारियों को गम्भीरता से लेकर उस पर अंकुश नहीं लगा रहा है, जब कि स्वास्थ्य विभाग को बखूबी मालूम है, कि यह बीमारी एक निश्चित तय समय सीमा पर ही आता है, फिर रोकथाम में विभाग के साथ-साथ सरकार की भी लापरवाही क्यो ?

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