ब्रह्म से बड़ा कोई आनंद नही
रमेश पाण्डेय
जगद्गुरू कृपालु जी महाराज का जन्म अक्टूबर 1922 को इलाहाबाद के निकट प्रतापगढ़ जिले के अंतर्गत स्थित कुण्डा के पास मनगढ़ नामक स्थान पर हुआ था। 12 नवंबर 2013 को वह चिरनिद्रा में लीन हो गये। उन्होंने हिन्दी और संस्कृति की शिक्षा ग्रामिण विधालय से प्राप्त की। संस्कृत और आयुर्वेद की उच्च शिक्षा इन्होंने इन्दौर और वाराणसी से प्राप्त की। लगभग एक वर्ष का समय इन्होंने चित्रकूट में भी गुजारा। 16 साल की उम्र में अपनी बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने वृंदावन को प्रस्थान किया और अगले ही साल वो गुरू के रूप में श्री महाराज जी के रूप में सम्बोधित हुए। 17 साल की उम्र में 6 महीनों तक लगातार उन्होंने महामंत्र का जाप करना शुरू कर दिया। 1955 में कृपालु जी ने एक बहुत बड़ा धार्मिक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें भारत वर्ष के बाहुत सारे धार्मिक लोगों ने भाग लिया। काशी विधा परिषद के महामहोपाध्याय श्री गिरिधर शर्मा भी इस सम्मेलन में प्रस्तुत थे। कृपालू जी की आध्यात्मिक ज्ञान से वो बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने कृपालु जी को 1957 में काशी विधा परिषद में प्रवचन देने के लिए आमंत्रित किया। यहाँ पर इन्होंने 7 दिनों तक भाषण दिया। इसके बाद वो पांचवें जगद् गुरू के रूप में चर्चित हुए। 14 जनवरी 1957 को मात्र 34 साल की उम्र में ही उन्हें काशी विधा परिषद द्वारा जगद्गुरू की उपाधि प्रदान की गई। मनगढ़ का भव्य मंदिर कृपालु जी महाराज के देख रेख में निर्मित हुआ जहाँ राधा एवं कृष्ण के साथ वे स्वयं विभिन्न मुद्राओं में विराजमान है। देश-विदेश से लोग इस मंदिर के दर्शन हेतू पधारते हैं। कृपालु जी महराज कहा करते थे कि मनुष्य का सबसे प्रमुख लक्ष्य है आनंद की प्राप्ति। इससे बड़ा कोई लक्ष्य नहीं है। अज्ञनता के कारण हम इस लक्ष्य को पाने में असफल रहते हैं अर्थात आनंद प्राप्त नहीं कर पाते हैं। ज्ञान के तीन प्रकार हैं ब्रह्म, जीव और माया। हमें बस यही ज्ञान प्राप्त करना है। ब्रह्म ही वास्तविक आनंद है। सत् चित इसका विशेषण है। कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रह्म ही ऐसा आनंद है जो नित्य है। सांसरिक आनंद जड़ है, अनित्य और इनकी सीमाएं हैं। सासंरिक आनंद एक समय पर समाप्त हो जाता है। मान लीजिए आपने रसगुल्ला खाया आपको बड़ा आनंद मिला। लेकिन कितनी देर के लिए, इस आनंद से बड़ा भी आनंद है। लेकिन ब्रह्म से बड़ा कोई आनंद नहीं है और इसका आनंद कभी समाप्त नहीं होता है। रूपी ब्रह्म के दो रूप हैं। मूर्त और अमूर्त। वह जब चाहे निर्गुण निराकार बन जाता है और जब चाहे सगुण साकार बन जाता है।श्वेताश्वतर उपनिषद् के छठे अध्याय का आठवां मंत्र कहता है कि उसके पास अनंत अस्वभाविक शक्तियां है। इनमें सबसे प्रमुख है स्वरूप शक्ति। इस शक्ति के द्वारा वह दोनों रूप धारण कर लेता है अमूर्त और मूर्त। अमूर्त रूप को मानने वाले शंकराचार्य ने भी मान है कि मूर्त और अमूर्त दो स्वरूप हैं ब्रह्म के। इसे इन्होंने व्यवहारिक रूप में भी दर्शाया है। चारों दिशाओं में चारों धाम की स्थापना करके उसमें ब्रह्म की मूर्ति स्थापित करके। जबकि भाष्य में लिखा शंकराचार्च ने लिखा है कि ब्रह्म का सगुण साकार रूप तो मायिक होता है। जीव भी मायिक और भगवान का सगुण साकार रूप वह भी मायिक यानी मायिक जीव मायिक ब्रह्म की पूजा करे। मूर्त और अमूर्त रूप में ब्रह्म के तीन स्वरूप हैं जिसे ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के नाम से जाना जाता है। वास्तव में ब्रह्म एक होते भी अनंत है। इसी प्रकार उनकी सभी चीजें अनंत हैं। उनकी लीलाएं, नाम, धाम सभी अनंत हैं।शंकराचार्य ने लिखा है कि ब्रह्म का सगुण साकार रूप तो मायिक होता है। जीव भी मायिक और भगवान का सगुण साकार रूप वह भी मायिक यानी मायिक जीव मायिक ब्रह्म की पूजा करे। मूर्त और अमूर्त रूप में ब्रह्म के तीन स्वरूप हैं जिसे ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के नाम से जाना जाता है। वास्तव में ब्रह्म एक होते भी अनंत है। इसी प्रकार उनकी सभी चीजें अनंत हैं। उनकी लीलाएं, नाम, धाम सभी अनंत हैं।
जगद्गुरू कृपालु जी महाराज का जन्म अक्टूबर 1922 को इलाहाबाद के निकट प्रतापगढ़ जिले के अंतर्गत स्थित कुण्डा के पास मनगढ़ नामक स्थान पर हुआ था। 12 नवंबर 2013 को वह चिरनिद्रा में लीन हो गये। उन्होंने हिन्दी और संस्कृति की शिक्षा ग्रामिण विधालय से प्राप्त की। संस्कृत और आयुर्वेद की उच्च शिक्षा इन्होंने इन्दौर और वाराणसी से प्राप्त की। लगभग एक वर्ष का समय इन्होंने चित्रकूट में भी गुजारा। 16 साल की उम्र में अपनी बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने वृंदावन को प्रस्थान किया और अगले ही साल वो गुरू के रूप में श्री महाराज जी के रूप में सम्बोधित हुए। 17 साल की उम्र में 6 महीनों तक लगातार उन्होंने महामंत्र का जाप करना शुरू कर दिया। 1955 में कृपालु जी ने एक बहुत बड़ा धार्मिक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें भारत वर्ष के बाहुत सारे धार्मिक लोगों ने भाग लिया। काशी विधा परिषद के महामहोपाध्याय श्री गिरिधर शर्मा भी इस सम्मेलन में प्रस्तुत थे। कृपालू जी की आध्यात्मिक ज्ञान से वो बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने कृपालु जी को 1957 में काशी विधा परिषद में प्रवचन देने के लिए आमंत्रित किया। यहाँ पर इन्होंने 7 दिनों तक भाषण दिया। इसके बाद वो पांचवें जगद् गुरू के रूप में चर्चित हुए। 14 जनवरी 1957 को मात्र 34 साल की उम्र में ही उन्हें काशी विधा परिषद द्वारा जगद्गुरू की उपाधि प्रदान की गई। मनगढ़ का भव्य मंदिर कृपालु जी महाराज के देख रेख में निर्मित हुआ जहाँ राधा एवं कृष्ण के साथ वे स्वयं विभिन्न मुद्राओं में विराजमान है। देश-विदेश से लोग इस मंदिर के दर्शन हेतू पधारते हैं। कृपालु जी महराज कहा करते थे कि मनुष्य का सबसे प्रमुख लक्ष्य है आनंद की प्राप्ति। इससे बड़ा कोई लक्ष्य नहीं है। अज्ञनता के कारण हम इस लक्ष्य को पाने में असफल रहते हैं अर्थात आनंद प्राप्त नहीं कर पाते हैं। ज्ञान के तीन प्रकार हैं ब्रह्म, जीव और माया। हमें बस यही ज्ञान प्राप्त करना है। ब्रह्म ही वास्तविक आनंद है। सत् चित इसका विशेषण है। कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रह्म ही ऐसा आनंद है जो नित्य है। सांसरिक आनंद जड़ है, अनित्य और इनकी सीमाएं हैं। सासंरिक आनंद एक समय पर समाप्त हो जाता है। मान लीजिए आपने रसगुल्ला खाया आपको बड़ा आनंद मिला। लेकिन कितनी देर के लिए, इस आनंद से बड़ा भी आनंद है। लेकिन ब्रह्म से बड़ा कोई आनंद नहीं है और इसका आनंद कभी समाप्त नहीं होता है। रूपी ब्रह्म के दो रूप हैं। मूर्त और अमूर्त। वह जब चाहे निर्गुण निराकार बन जाता है और जब चाहे सगुण साकार बन जाता है।श्वेताश्वतर उपनिषद् के छठे अध्याय का आठवां मंत्र कहता है कि उसके पास अनंत अस्वभाविक शक्तियां है। इनमें सबसे प्रमुख है स्वरूप शक्ति। इस शक्ति के द्वारा वह दोनों रूप धारण कर लेता है अमूर्त और मूर्त। अमूर्त रूप को मानने वाले शंकराचार्य ने भी मान है कि मूर्त और अमूर्त दो स्वरूप हैं ब्रह्म के। इसे इन्होंने व्यवहारिक रूप में भी दर्शाया है। चारों दिशाओं में चारों धाम की स्थापना करके उसमें ब्रह्म की मूर्ति स्थापित करके। जबकि भाष्य में लिखा शंकराचार्च ने लिखा है कि ब्रह्म का सगुण साकार रूप तो मायिक होता है। जीव भी मायिक और भगवान का सगुण साकार रूप वह भी मायिक यानी मायिक जीव मायिक ब्रह्म की पूजा करे। मूर्त और अमूर्त रूप में ब्रह्म के तीन स्वरूप हैं जिसे ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के नाम से जाना जाता है। वास्तव में ब्रह्म एक होते भी अनंत है। इसी प्रकार उनकी सभी चीजें अनंत हैं। उनकी लीलाएं, नाम, धाम सभी अनंत हैं।शंकराचार्य ने लिखा है कि ब्रह्म का सगुण साकार रूप तो मायिक होता है। जीव भी मायिक और भगवान का सगुण साकार रूप वह भी मायिक यानी मायिक जीव मायिक ब्रह्म की पूजा करे। मूर्त और अमूर्त रूप में ब्रह्म के तीन स्वरूप हैं जिसे ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के नाम से जाना जाता है। वास्तव में ब्रह्म एक होते भी अनंत है। इसी प्रकार उनकी सभी चीजें अनंत हैं। उनकी लीलाएं, नाम, धाम सभी अनंत हैं।
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