कर्ज लेकर घी पी रही है दुनिया


अमेरिका में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के बीच अंतिम क्षणों में समझौता हो गया. कर्ज सीमा बढ़ोतरी की आखिरी तारीख को आधी रात के ठीक चार घंटे पहले सीनेट ने संबंधित बिल को 81 के मुकाबले 18 मतों से और हाउस ऑफ रिप्रजटेंटिव ने 285 के मुकाबले 144 वोट से पारित कर दिया. इसके तुरंत बाद राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस पर हस्ताक्षर कर दिया, जिससे यह कानून बन गया. इसके साथ ही अमेरिका में दो सप्ताह से जारी शटडाउन खत्म हो गया और अमेरिकी शेयर बाजारों में तेजी गयी. इससे अमेरिका में भारी-भरकम निवेश करनेवाले देशों और संस्थाओं ने भी राहत की सांस ली. अब कर्ज सीमा में बढ़ोतरी से दुनिया भले ही राहत की सांस ले रही हो, लेकिन यह बीमारी का कामचलाऊ इलाज है. यह दुनिया के लिए क्रिसमस गिफ्ट की तरह है, जिसके तहत संकट की तिथि 17 अक्तूबर से बढ़ा कर सात फरवरी, 2014 कर दी गयी है. इस तरह यदि अमेरिका के दोनों दलों में कोई दीर्घकालिक सहमति नहीं बनती है, तो सात फरवरी को एक बार फिर दुनिया की धड़कनें थम जायेंगी. गौरतलब है कि दो साल पहले अगस्त, 2011 में भी कर्ज सीमा बढ़ाने पर डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकंस में ऐसी ही तनातनी मची थी, लेकिन आखिरी समय पर उसे सुलझा लिया गया. लेकिन इस बार महज साढ़े तीन महीने बाद ही गतिरोध की स्थिति पैदा हो सकती है. अमेरिका में मौजूदा आर्थिक संकट का तात्कालिक कारण भले ही ओबामाकेयर हो, लेकिन इसकी जड़ कर्ज संस्कृति से जुड़ी हुई है. ‘कर्ज लेकर घी पीने’ का सिद्धांत चार्वाक दर्शन ने भारत में प्रतिपादित किया, लेकिन उसे जीवन में उतारने का श्रेय अमेरिका को है. वहां यह पिछले कई दशकों से जारी है. इसी के मद्देनजर दोनों पार्टियों के बीच समझौता हुआ है, जिसके तहत सरकार दैनिक कामकाज चलाने और वेतन आदि देने के लिए एक निश्चित सीमा तक ही कर्ज ले सकती है. इसे ही कर्ज सीमा कहते हैं. जो पार्टी सत्ता में होती है, वह इस कर्ज सीमा में बढ़ोतरी करा कर काम करती रहती है. लंबे समय से जारी इस नीति का ही नतीजा है कि आज अमेरिका पर 16,700 अरब डॉलर का कर्ज चढ़ा हुआ है और इस कर्ज में रोजाना 1.83 करोड़ डॉलर की वृद्धि हो रही है. इस तरह हर अमेरिकी नागरिक 52 हजार डॉलर से अधिक का कर्जदार है. अमेरिका में जो हो रहा है वह भारत में भी जारी है. भारत सरकार जितना खर्च करती और जितना अर्जित करती है उसके बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही है. स्थिति यहां तक आ गयी है कि सरकार को कर्ज के ब्याज के भुगतान के लिए भी कर्ज लेना पड़ रहा है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस वित्त वर्ष के पहले पांच महीनों में वित्तीय घाटा बढ़ कर 4.05 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है, जो एक साल पहले के मुकाबले 20 फीसदी ज्यादा है. कर संग्रह बढ़ाने में समस्या आ रही है और सार्वजनिक कंपनियों की विनिवेश योजना भी असफल हुई है. आगामी दिनों में यहां भी यह समस्या गंभीर हो जाये, तो आश्चर्य नहीं. भले ही अमेरिका में हुए समझौते से वह दिवालिया होने से बच गया, लेकिन इससे विश्व अर्थव्यवस्था में डॉलर का बढ़ता प्रभुत्व शुभ संकेत नहीं है. दो दशक पहले अमेरिकी डॉलर करेंसी बास्केट की एक करेंसी मात्र होती थी. इसमें ब्रिटिश पौंड और जापानी येन के साथ यूरोपीय देशों की कुछ करेंसी शामिल होती थी. इस तरह समूचा विश्व व्यापार कई करेंसी के माध्यम से होता था. यदि किसी एक देश में कोई उथल-पुथल होती थी, तो उस देश की प्रभावित करेंसी से विश्व व्यापार का एक हिस्सा ही प्रभावित होता था, लेकिन जब से अमेरिकी डॉलर को विश्व रिजर्व करेंसी का दर्जा मिला, तब से पूरी दुनिया का कारोबार डॉलर में होने लगा. इसलिए अमेरिका में आर्थिक उथल-पुथल से विश्व व्यापार पर प्रभाव पड़ने लगता है. डॉलरीकृत होती विश्व अर्थव्यवस्था से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय है कि गैर-डॉलर करेंसी में कारोबार को प्राथमिकता मिले. पिछले कुछ महीनों में चीन ने कई देशों से ऐसे समझौते किये हैं. भारत ने भी जापान के साथ करेंसी स्वैपिंग की है. अब समय आ गया है कि इस प्रकार के द्विपक्षीय सहयोग को और तेजी से बढ़ाया जाये. समग्रत: भले ही कर्ज सीमा में बढ़ोत्तरी से अमेरिका की ओर से आनेवाली वित्तीय सुनामी कुछ महीनों के लिए टल गयी हो, पर इसके और तूफानी होने की संभावनाएं मौजूद हैं. यह सुनामी अमेरिका में ही नहीं, बल्कि समूची पूंजीवादी व्यवस्था में विद्यमान है और दिन-प्रतिदिन मजबूत हो रही है. यही कारण है कि देशों, शहरों, कंपनियों के दिवालिया होने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. इस व्यवस्था में जीत अवारा पूंजी की होती है, जो मुनाफे के लिए विश्व भर में घूमती रहती है.

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