पत्रकारिता के बारे में समालोचना करते वक्त डर क्यों

पत्रकारिता के बारे में समालोचना करते वक्त डर क्यों लगता है? क्या इसलिए कि लोकतंत्र के खंभों को पाक दामन माना जाता है? या इसलिए कि ये खंभे काफी ताकत रखते और समय-समय पर ताकत दिखाते भी हैं? अब यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि चौथा खंभा, लोकतंत्र का भार उठाये है या वही लोकतंत्र पर भारी पड़ रहा है. चौथा खंभा यानी पत्रकारिता यानी अखबार, न्यूज चैनल, रेडियो, इंटरनेट सब. अगर कुछ मीडिया संस्थानों को छोड़ दिया जाये, तो इस वक्त ज्यादातर मीडिया संस्थान लोकतंत्र के नाम पर ह्यएकरंगी भीड़ तंत्रह्ण के हक में खड़े दिख रहे हैं. नतीजा, अब देश के लोगों को एक नये उन्माद का हिस्सा बनाने की कोशिश चल रही है. पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विवि (जेएनयू) में एक घटना हुई. इस घटना को न्यूज चैनलों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटना बना दी. राष्ट्रवाद के नाम पर अमूर्त बहस शुरू की गयी. इसका लोगों के दुख-सुख, रोजगार, दा‍ल-चावल की कीमत से कोई लेना-देना नहीं है. इसी बहस के बहाने देश में उन्माद पैदा किया जा रहा है. यह एक ऐसी बहस है, जिसमें अगर मीडिया के बादशाहों से सहमति नहीं है, तो कोई भी शख्स राष्ट्र का विरोधी हो सकता है. यह उन्माद पिछले कुछ उन्मादों की ही तरह खतरनाक, हिंसक और विभाजनकारी दिख रहा है. इस उन्माद की आग को बुझाने के बजाय कुछ अखबारों और खबरिया चैनलों ने इसमें घी डालने का काम किया. जिन पत्रकारों को याद नहीं या जो पत्रकार इनका हिस्सा रहे हैं, उन्हें अपनी याद्दाश्त ताजा करनी चाहिए. दिल्ली में केंद्रित आरक्षण विरोधी आंदोलन को राष्ट्रव्यापी, हिंसक, उन्मादी और नफरत भरा बनाने में पत्रकारिता की भूमिका अहम थी. बाबरी मसजिद-रामजन्मभूमि आंदोलन में अखबारों और खासकर हिंदी के अखबारों ने जो नफरत फैलायी, वह इतिहास का दस्तावेज है, जिसकी पड़ताल में रघुवीर सहाय जैसे संवेदनशील पत्रकार और साहित्यकार की जान भी चली गयी. याद है न! कुछ दिनों पहले हैदराबाद केंद्रीय विवि और इसके बाद जेएनयू से निकले कुछ नारों से कुछ पत्रकारों का खून उबल रहा है. उनके बोल, फेसबुक पोस्ट या उनके लेख या उनकी खबरें देखिए- वे शब्दों से उबलते नजर आते हैं. वे अपने उबाल में देश को उबाल देना चाहते हैं. नतीजा, उनके अनुयायी सोशल मीडिया पर आरोपितों को पीटना चाहते हैं. फांसी देना चाहते हैं. बलात्कार कराना चाहते हैं. क्या मीडिया उन्माद बढ़ाने का काम करेगा या स्वस्थ संवाद के जरिये मुद्दों की पड़ताल करेगा? विमर्श एक सभ्य तरीका है. भारतीय संस्कृति में विमर्श की लंबी परंपरा रही है. लेकिन पत्रकारों का एक समूह दूसरों को डरा-धमका कर या चुप करा कर विमर्श करना चाहता है. यह सब देश के नाम पर भव्य स्टूडियो या अखबारों के बड़े दफ्तरों से हो रहा है. ये वैसा ही उन्माद पैदा करना चाहते हैं, जैसा नब्बे के दशक में वे कर चुके हैं. यह रजामंदी पैदा करने का उन्माद है.पत्रकारिता का मान्य सिद्धांत है कि किसी पर आरोप लगाने से पहले तथ्यों की पूरी पड़ताल की जाये. जिस पर आरोप लग रहा, उसकी बात भी सुनी जाये. किसी के कहे या सुने पर कुछ न किया जाये. ये सारे सिद्धांत पिछले दिनों ताक पर रख दिये गये. एक वीडियो आया और दिखाया गया. अब इसकी सच्चाई पर ही शक है. नारे निकाले गये, जो बाद में कुछ और निकलते दिखे. कुछ तस्वीर आयी, पता चला इसके साथ कलाकारी की गयी थी. कुछ नाम आये, जिन्हें बड़ी आसानी से आतंक के बने-बनाये खांचे में फिट कर दिया गया.

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