मन में छिपे किसी एक भय का पुतला दहन कर देते है

आइए एक संकल्प लें...
आज विजयदशमी है। यह वक्त किसी भी तरह दोनों के बीच सही संतुलन साधने की कोशिशें करने का है। मन से ‘रावण’ को बाहर निकाल कर ‘राम’ को वहां स्थापित करने का है। लेकिन, अपने मन से रावण को बाय-बाय कहें तो कैसे? मन के रावण का मतलब भय है। हमारे मन में छोटे-छोटे भय बैठे होते हैं। किसी को अंधेरे से डर लगता है, तो किसी को बढ़ते वजन से डर लगता है। किसी को गाड़ी चलाने से तो किसी को अंग्रेजी से। आइए आज संकल्प लें, इस साल दशहरा के मौके पर अपने मन में छिपे किसी एक भय का पुतला दहन कर देते हैं। जरा सोचें कि वह एक बुरी आदत, जो हमारे पूरे व्यक्तित्व को कठघरे में खड़ा कर देती है, उसे बदलने का प्रयास सच्चे मन से क्यों नहीं होता। अपनी जिंदगी में उस एक व्यक्ति को माफ कर देने की कोशिश भी करनी चाहिए, जिस पर हम काफी समय से खफा हैं। वजह चाहे जो भी हो। उस गुस्से से चाहे उसका कुछ भी न बिगड़े, हमारा खून जरूर जलता है। फिर क्यों न हम अपने सोच को सकारात्मक दिशा में लगा कर अपनी इस दशा पर विजय पा लें। इस विजयदशमी हम यह संकल्प करें कि हम खुद में एक ऐसे गुण का विकास करने की कोशिश करेंगे। संकल्प के हाथों जड़ीभूत कलश नवरात्रि के नौ दिन रंचमात्र नहीं डोलता। कलश के आगे का दीप पल भर को नहीं बुझता। क्या यह कोटि-कोटि जनता-जनार्दन का सालाना कर्मकांड भर है? नहीं, कलश और दीप का प्रतीक बहुत कुछ कहता है। देश के समाने एक बड़ा ज्वलंत प्रश्न है कि शक्ति अन्यायी के हाथ में हो तो क्या किया जाये, कैसे निपटा जाये विध्वंस पर उतारू शक्ति से? एक रास्ता तो बड़ा आसान है, ईंट का जवाब पत्थर से देने का रास्ता। परंपरा बताती आयी थी कि शठ के साथ शठ का ही आचरण करना चाहिए। लेकिन नहीं, बंकिम का रास्ता, निराला की चिंता, गांधी के सत्य की खोज को यह परंपराप्रदत्त रास्ता मंजूर नहीं था। गांधी इस खतरे को समझते थे कि अन्यायी से लड़ने के लिए अन्याय का ही रास्ता अपनाया, तो अन्याय में इजाफा होगा, एक और अन्यायी खड़ा होगा। विश्व के महानतम धर्मों की क्रीड़ास्थली भारत यदि आधुनिक सभ्यता की राह पर चलते हुए अपनी पवित्र धरती पर बंदूकों के कारखाने खड़े करता है, घृणास्पद औद्योगीकरण की वही राह अपनाता है, जिसने यूरोप के लोगों को गुलामी की दशा में डाल दिया है और मानवता की साझी पूंजी बन सकने लायक उनके गुणों का गला घोंट रखा है, तो फिर भारत चाहे और जो कुछ भी बन जाये, भारतीय होने के अर्थ में एक राष्ट्र नहीं बन सकता। आज देश आजाद है, लेकिन गांधी का स्वराज, निराला का शक्ति-पूजन और बंकिम की दुर्गा रूप भारतमाता का अपनी संतानों से सवाल शेष है। आइये, ‘रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि द्विषो जहि-विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु’ के अपने दुर्गा-पाठ की विजयादशमी एक बार फिर से हम शक्ति की मौलिक कल्पना से करें।

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