गरीबी तो बस स्टेट ऑफ माइंड है
छी-छी- वो भी कैसे सड़े हुए दिन थे, जब चुनाव गरीबी, बेरोजगारी जैसे ‘डाउनमार्केट’ मुद्दों पर लड़े जाते थे. तब के नेताओं को यह दिव्य- ज्ञान कहां था कि ‘गरीबी तो बस स्टेट ऑफ माइंड है’? वे तो गरीबी को अभिशाप कहते रहे. कितने नासमझ थे बेचारे? अब बताइए, अगर नेहरू, शास्त्री और इंदिरा के जमाने में गरीबी दूर हो गयी होती, तो एक बच्च चाय क्यों बेचता और उसे बड़े होकर देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का मौका कैसे मिलता? हमें तो एहसानमंद होना चाहिए उन नेताओं का जो गरीबी दूर नहीं कर पाये, नहीं तो एक महान नेता पाने के अवसर से देश वंचित रह जाता. यह तो अच्छा हुआ कि उस जमाने में आज की तरह टीवी न्यूज चैनल नहीं थे, नहीं तो उनकी टीआरपी हमेशा जमीन ही सूंघती रहती. कोई गरीबी, बेरोजगारी जैसे नीरस मसलों पर भला कितनी देर प्राइम टाइम में टीवी पर बहस करा सकता है? बहस करनेवाला भी डिप्रेशन का शिकार हो जाता और बहस सुननेवाला भी. टीवी के लिए विजुअल चुनने में परेशानी आती सो अलग. झुग्गी-झोपड़ी, भूख से बिलखते नंगे-गंदे बच्चे, घिसी चप्पलों और बढ़ी दाढ़ीवाले नौजवान.. यानी सिर्फ ‘फील बैड’. 2004 के आ...