सोच बदलने की जरूरत
बुजुर्गो का यह अनुभव नयी पीढ़ी के लिए ‘टॉनिक’ का
काम कर रहा है कि जीवन एक दौड़ है. शायद इसीलिए जीवन की भागदौड़
पीढ़ी-दर-पीढ़ी तेज हो रही है. हर किसी को जल्दी मंजिल तक पहुंचना है.
परंतु जीवन की असली मंजिल क्या है और उसे पाने का सही रास्ता कैसा हो,
परिवार में यह ‘उपदेश’ देने की अब न तो बुजुर्गो को इजाजत है और न ही उसे
सुनने के लिए नयी पीढ़ी के पास धैर्य. यहां तक कि स्कूली पाठय़क्रमों में भी
ऐसी नैतिक शिक्षा ‘आउटडेटेड’ मान ली गयी है. जरा ठहर कर सोचें, तो ठीक एक साल पहले देश की राजधानी
में ‘निर्भया’ के साथ हुए निर्मम गैंग रेप के बाद आये देशव्यापी उबाल के
किसी मंजिल तक पहुंचे बिना ही शांत हो जाने और पिछले एक साल में देश में
रेप की घटनाओं के लगातार बढ़ते जाने के कुछ सूत्र इसी में छिपे हैं.
जन-दबाव में कानून में तो बदलाव कर दिये गये, लेकिन महिलाओं के खिलाफ
नजरिया बदलने की कोई ठोस पहल नहीं की गयी, न समाज के स्तर पर, न ही सरकार
के स्तर पर.शायद यही कारण है कि निर्भया मामले के बाद देशव्यापी
आंदोलन के सूत्रधार बने दिल्ली के ‘जंतर-मंतर’ से एक साल बाद भी वही आवाज
सुनायी दे रही है- ‘हमें इंसाफ चाहिए’. अंतर सिर्फ यह आया है कि पीड़िता और
दोषी के चेहरे बदल गये हैं. इन दिनों एक एनजीओ के कार्यकर्ता जंतर-मंतर पर
प्रदर्शन कर रहे हैं. वे गुड़गांव की एक कंपनी में काम करनेवाली लड़की की
पिछले साल कुछ कार सवारों द्वारा गैंग रेप के बाद हत्या के दोषियों को
फांसी दिलाना चाहते हैं.उधर, राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो और राज्यों की
पुलिस के बीते एक साल के आंकड़े भी बताते हैं कि देश में महिलाओं के खिलाफ
अपराध कम होने की बजाय, लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं. हालात के मद्देनजर
दुष्यंत की यह पंक्ति बेहद सटीक लगती हैं- ‘हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी
चाहिए.’ लेकिन पिघले कैसे, इस पर गंभीर चिंतन की फुरसत किसे है! महिलाएं
अपने देह की स्वामिनी है- आधी आबादी के इस बुनियादी अधिकार पर समाज में
सैद्धांतिक सहमति भले हो, व्यवहार के धरातल पर इसे सुनिश्चित करने के लिए
महिलाओं के प्रति मानसिकता बदलना जरूरी है. जाहिर है, इसके लिए एक सामाजिक
क्रांति की कमान खुद महिलाओं को ही थामनी होगी.
सहमत हूँ ... महिलाओं को आगे आने से स्थिति में तेज़ी से सुधार आएगा ...
ReplyDeletethank you
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