सांठगांठ ने मिलावट के संकट को व्यापक बनाया

खाद्य संरक्षा विभाग के अधिकारियों और उत्पादकों, वितरकों एवं विक्रेताओं के बीच सांठगांठ ने मिलावट के संकट को व्यापक बनाया है, लेकिन उपभोक्ताओं की शिकायतों के त्वरित निपटारे का कोई तंत्र अब तक नहीं बन सका है. पिछले महीने की 12 तारीख को केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री जेपी नड्डा ने राज्यसभा में बड़ी चिंताजनक सूचना दी थी. भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने अपने पांच क्षेत्रीय कार्यालयों के माध्यम से 2011 में देश के 33 राज्यों से दूध के 1,791 नमूनों की जांच की थी. 
इनमें 68.4 फीसदी नमूने गुणवत्ता के निर्धारित मानदंडों पर खरे नहीं उतरे थे और उनका सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था. खाद्य पदार्थो में बड़े पैमाने पर मिलावट होने और खराब उत्पाद बेचे जाने की खबरें रोजमर्रा की बात हो चुकी हैं. प्राधिकरण का उक्त सर्वेक्षण इसकी भयावह व्यापकता को रेखांकित करता है. पिछले माह के आखिरी हफ्ते में महाराष्ट्र में राज्यव्यापी छापों में दूध और दुग्ध उत्पादों में मिलावट के सैकड़ों मामले सामने आये थे. मई में ही केरल के खाद्य संरक्षा आयुक्त के कार्यालय ने पाया था कि 300 कंपनियों के खाने और स्वास्थ्य-संबंधी उत्पादों में खतरनाक मिलावट और खराबी है. इन कंपनियों में कुछ बड़ी वैश्विक कंपनियां भी शामिल हैं. जहां दूध में ग्लूकोज और साबुन मिलाने के मामले सामने आ रहे हैं, वहीं दवाओं में चाक पाउडर और हानिकारक रसायन डाले जा रहे हैं. इनके अलावा खाद्य पदार्थो में खतरनाक रंगों और जानलेवा जीवाणुओं की मौजूदगी आम बात हो गयी है. दिल्ली में सड़कों पर बिकनेवाले खाने के नमूनों में भारी मात्र में वैसे जीवाणु पाये गये हैं, जो मानव-मल में होते हैं! उधर, उत्तर प्रदेश के खाद्य संरक्षा एवं औषधि प्रशासन ने एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के लोकप्रिय उत्पाद में मोनोसोडियम ग्लूटामेट और शीशे की अत्यधिक मात्र पायी है. इस तरह मिलावट और खराब उत्पादों की बिक्री पेट खराब होने की साधारण परेशानियों से लेकर कैंसर जैसी घातक बीमारियों का कारण बन रहे हैं. हमारे देश में खाद्यपदार्थो में मिलावट नयी समस्या नहीं है, परंतु साल-दर-साल इसका दायरा व्यापक होता जा रहा है. अधिक मुनाफा कमाने के लालच में नामचीन कंपनियों से लेकर खोमचेवालों तक ज्यादातर विक्रेताओं ने उपभोक्ताओं के हितों को ताक पर रख दिया है. गुणवत्ता नियंत्रण और मानक तय करनेवाली संस्थाएं इस समस्या पर काबू पाने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं. संसाधनों के अभाव और लापरवाही का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2013-14 में राष्ट्रीय प्राधिकरण ने सिर्फ 72,200 नमूनों की जांच की थी. इनमें 13,571 नमूने दोषपूर्ण पाये गये थे और 10,235 मामलों में कानूनी कार्रवाई शुरू की गयी थी, किंतु सिर्फ 3,845 मामलों में ही दोषियों को दंडित किया जा सका था. वर्ष 2014-15 के पूरे आंकड़े अभी प्राधिकरण की वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं हैं. मिलावट और खराब उत्पादों के इतने अधिक मामलों के बावजूद देश में सिर्फ 68 जांचशालाएं ऐसी हैं जिन्हें राष्ट्रीय प्रयोगशाला प्रमाणन बोर्ड से स्वीकृति मिली है. अन्य 83 जांचशालाओं का स्तर संदर्भ, राज्य या सार्वजनिक खाद्य प्रयोगशालाओं का है, पर ये सभी मानदंडों पर प्रमाणित नहीं हैं. केंद्र सरकार ने पिछले साल 850 करोड़ रुपये राष्ट्रीय प्राधिकरण की जांचशालाओं व अन्य सुविधाओं को तथा 900 करोड़ रुपये राज्यों के नियामक तंत्र को बेहतर करने के लिए निर्धारित किया है. इसके अलावा अमेरिका के रोग नियंत्रण और खाद्य संरक्षा केंद्रों की तर्ज पर एक राष्ट्रीय केंद्र की स्थापना की भी योजना है. वर्ष 2011 में लाये गये खाद्य संरक्षा एवं मानक कानून द्वारा पूर्ववर्ती खाद्य कानूनों, मानक संस्थाओं और जांच एजेंसियों को एक ही कानून के अंतर्गत लाया गया है, परंतु समुचित संसाधन, केंद्र-राज्य सहयोग तथा कठोर दंड के अभाव में इसका खास असर नहीं दिख रहा है. यह अच्छी बात है कि नियामक संस्थाएं उत्पादों की जांच कर रही हैं, परंतु डिब्बाबंद और पैकेट में उपलब्ध पदार्थो के उपभोग एवं वितरण में भारी वृद्धि के कारण नमूनों की जांच और दोषियों को दंडित करने में तेजी लाने की जरूरत है. खाद्य संरक्षा विभाग के अधिकारियों और उत्पादकों, वितरकों एवं विक्रेताओं के बीच सांठगांठ ने मिलावट के संकट को व्यापक बनाया है, लेकिन उपभोक्ताओं की शिकायतों के त्वरित निपटारे का कोई तंत्र अब तक नहीं बन सका है. जरूरी आंकड़ों की मॉनीटरिंग और उनके आधार पर रणनीति बनाने की कार्यशैली भी नहीं विकसित हो पायी है. इस संदर्भ में अमेरिका, ब्रिटेन और चीन जैसे देशों की व्यवस्थाओं से हम बहुत-कुछ सीख सकते हैं. संतोष की बात है कि हाल में केंद्र ने इससे निपटने को प्राथमिकता देने का इरादा व्यक्त किया है. सरकारों और संबंधित एजेंसियों को समझना होगा कि खाद्य पदार्थो में मिलावट भ्रष्टाचार या अपराध के साधारण मामले नहीं हैं, इससे जन स्वास्थ्य और जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा है.

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